ये गाँव खेड़ा है साहिब, यहां मोटर गाड़ी नहीं मिलेगी कि बैठे और गर्ररर्र से चल दिए, यहां तो बसंती का तांगा ही चलता है। कितना ही अच्छा होता कि अगर तांगा ही चलता रहता, मोटर गाड़ी नहीं। इसमें एक बेज़ुबान पर ज़ुल्म-ओ-सितम तो होते हैं, वक्त भी ज़ाया होता है सैर सपाटे में लेकिन हम खुद को प्रगतिवादी होने के ढोंग से बचा लेते हैं। राहुल सांकृत्यायन ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ में लिखते हैं, “.
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