एक पैरा एथलीट, एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक प्रतिरोध की आवाज, एक पति तथा और भी बहुत कुछ का सम्मिश्रित नाम है प्रदीप राज। हमारे देश में खेल-कूद को लेकर एक सामान्य पिछड़ापन तो वैसे ही है, मगर जब बात शारीरिक रूप से बाध्य व्यक्तियों के खेल-कूद यानि पैरा एथलीट की हो, तो हालात का अंदाज़ा लगाना शायद ही मुश्किल हो। अपने रोजमर्रा की जिंदगी में हमें शायद उतना फर्क इस प्रकार के विमर्श का ना पड़े मगर अपने जीवन का ध्येय इसे ही बना लिया है प्रदीप ने।

प्रदीप ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा एक विशेष विद्यालय में प्राप्त की, जो इनके जैसे अन्य किसी बाधा का शिकार हुए विद्यार्थियों के लिये होता है। इसकी वजह जो प्रदीप ने बताई वो काफी मार्मिक है। प्रदीप ने बताया कि, “शुरुआत से ही मेरी शारीरिक बाध्यता को लेकर सामान्य लोग मेरा काफी मजाक उड़ाते थे। कई लोगों ने अपना उपेक्षा भाव मेरे सामने ही प्रदर्शित किया जो हमेशा से ही मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहा। इससे मेरा मनोबल टूटा नहीं बल्कि और भी मजबूत हुआ।”
अपनी लगन और मेहनत के बल पर प्रदीप आज भी उसी उत्साह और मजबूत इच्छाशक्ति से पैरा एथलीट के मिशन को राष्ट्रव्यापी बनाने में जुटे हुए हैं। हालाँकि कई गैर सरकारी संस्थाओं ने इस दिशा में काफी उल्लेखनीय काम किया है, मगर जिस किस्म की पहल हो रही है और जैसे नतीजे आ रहे हैं वो सुखद तो हैं मगर संतोषजनक नहीं हैं। प्रदीप इस पहल को नयी ऊंचाई तक पहुंचाना चाहते हैं। इसे लेकर उनके विचार बिलकुल सुस्पष्ट हैं। “देखिये जिस बड़ी तादाद में एन.जी.ओ. इस दिशा में काम कर रहे हैं, उसका उतना फायदा नहीं मिलता इसको समझने की ज़रुरत है। दरअसल हमें अधिक से अधिक प्रभावितों के मध्य से कुशल नेतृत्व पैदा करने की ज़रुरत है। इससे उनके बीच की आवाज़ को बल मिलेगा। सिर्फ एक प्रदीप से काम नहीं होने वाला। सैंकड़ो ऐसे प्रदीप बनाने की जरूरत है।”
अक्षम व्यक्तियों के लिये हमारे कानून में जो भी प्रावधान हैं उनकी मदद के लिए उसको सही तरीके से लागू करने की भी दीर्घकालिक आवश्यकता है। प्रदीप इस बात पर काफी जोर देते हैं। उनके अनुसार, “हमें किसी नए कानून की मांग करने की बजाय इस बात को लेकर लड़ने की ज़रुरत है कि जो भी मौजूदा कानून हैं, या जो भी हमारे संविधानिक अधिकार हैं उन्हें समुचित रूप से और प्रभावी तरीके से लागू किया जाए। ऐसी किसी नयी मांग की बजाये जो कि पूरी ही ना हो सके, जो भी वर्णित कानून हैं उसे ही सफलतापूर्वक लागू करवाने का प्रयास किया जाये तो हमारी स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है।”
फ़िलहाल प्रदीप अभी सरकारी भवनों के सोशल ऑडिट के काम में व्यस्त हैं। उन्होंने बताया कि जितने भी सरकारी भवन हैं उनको किस प्रकार सभी के लिये सर्व सुलभ बनाये जाये इसको लेकर जो विमर्श हो रहा है उससे कोई खास उपलब्धि मिलने वाली नहीं है। “जब तक यूनिवर्सल स्टैण्डर्ड का भवन निर्माण में अनुसरण नहीं किया जाता, तब तक हम कब तक पुराने भवनों को तोड़ कर उसे सर्व सुलभ बनाने का प्रयास करते रहेंगे? कई मकान तो ऐसे हैं कि उन्हें पूरी तरह से ही नए तरीके से बनाने की आवश्यकता है। जबकि कोशिश ये होनी चाहिए कि आने वाले समय में सभी सरकारी विभागों को और खासकर पी.डब्लू.डी. और सी.पी.डब्लू.डी. जैसी संस्थाओं को अनिवार्य रूप से इसे अपने नियमावली में शामिल करना चाहिए जिससे नए बनने वाले मकान और सरकारी भवन सर्व सामान्य के लिये उपयोग सुलभ हो।
समाज में इस किस्म के दोहरेपन के लिये हमारी रूढ़िवादी सोच काफी हद तक जिम्मेदार है। जिस प्रकार सभी वस्तुओं का समावेश सिर्फ सक्षम लोगों को ध्यान में रख कर किया जाता है उस बात को इस नजरिये से भी देखने की जरूरत है कि फिर हम अक्षम लोगों को अपने समाज का हिस्सा ही नहीं मानते हैं। प्रदीप ने इसे बखूबी जिया है और उनका कहना है कि, “जब तक हम इस सोच को बदल नहीं लेते कि हमारा समाज सक्षम और अक्षम दोनों को मिला कर पूरा होता है और उसी को ध्यान में रखकर जब हम अपने आस-पास किसी भी किस्म का निर्माण कार्य करेंगे तो अक्षमों के लिये विशेष प्रयास की स्वतः ही कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। फिर इस हीन भावना को लेकर भी अपने-आप ही लोगों में वैचारिक बदलाव आएगा।”
इस नए एहसास को मैं भी शायद पहली बार ही महसूस कर रहा था। दूसरों को दुर्बल, अक्षम और दीन-हीन देखने की हमारी सालों पुरानी परम्पराओं को तोड़ना शायद इतना आसान नहीं होगा मगर प्रदीप के अथक प्रयास से एक नयी सम्भावना जरूर पैदा होती है। प्रदीप खुद ही अन्तराष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त पैरा एथलीट रह चुके हैं और करीब एक दशक से डिसेबिलिटी राइट्स को लेकर सतत संघर्षशील हैं। उनके अनुसार “हिंदुस्तान में पैरा एथलीट का भविष्य काफी उज्जवल है मगर इसको लेकर जो लाल फीताशाही सरकारी महकमे के द्वारा बरती जा रही है वो एक भयावह दृश्य उत्पन्न करने वाला है। अक्सर जब भी किसी भी किस्म की अनियमितता का मामला उठता है तो सीधे सामाजिक अधिकार मंत्रालय को इसका दोषी ठहराया जाता है। क्यों नहीं खेल मंत्रालय, युवा मंत्रालय तथा अन्य सभी मंत्रालय इसकी सामूहिक जिम्मेदारी लेते हैं? क्यों नहीं सभी मंत्रालय अपने स्तर से इस समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं? हम सब को बैठकर सोचने की जरूरत है।”

राष्ट्रमंडल खेल जब दिल्ली में हुए थे तब जरूर पैरा एथलीट के मुद्दे, मीडिया के सहयोग से उठाये गए थे मगर अब फिर वही जस की तस वाली स्थिति बनी हुई है। अभी हाल में गाज़ियाबाद में भी पैरा एथलीट लोगों के खेल का आयोजन हुआ। राष्ट्रीय स्तर की इस प्रतियोगिता की जमीनी हकीकत तब सामने आई जब खबरिया चैनलों ने वहाँ इन खिलाडियों को दी जाने वाली सुविधाओं को दिखाया। सुविधा के नाम पर इन तमाम खिलाडियों की भावनाओं के साथ एक क्रूर मजाक किया गया था। उनके लिये की गयी रहने की व्यस्वथा और शौचालय कहीं से भी इन खिलाडियों को ध्यान में रख कर फिट नहीं बैठ रहे थे।
अब तक प्रदीप ने सूचना के अधिकार का प्रयोग करके इस प्रकार के काफी गड़बड़ियों को उजागर किया है और उसको लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं। अब वो इस काम में अकेले नहीं हैं। सुवर्णा राज से परिणय सूत्र में बंधने के बाद उन्होंने अपनी लड़ाई को और अधिक तेज कर दिया है। सुवर्णा भी अंतर्राष्टीय स्तर की पैरा एथलीट हैं और दोनों ने आपस में एक दुसरे को पसंद किया। बाकौल प्रदीप, “सुवर्णा के आ जाने से मुझे काफी मजबूती मिली है। मेरी इस मुश्किल लड़ाई को लड़ने में सुवर्णा ने पूरा सहयोग किया है। वो खुद भी पैरा एथलीट के अधिकारों की जोरदार पैरोकारी करती हैं। इससे मुझे काफी बल मिलता है।”
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