

"हम 10वीं कक्षा के छात्र हैं। हमारा गांव पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के कपकोट प्रखंड के अंतर्गत आता है। इसका नाम पोथिंग है। यह गांव बागेश्वर जिले से 20 किमी की दूरी पर स्थित है। आज भी गांव में किशोरी लड़कियां और महिलाएं के साथ रूढ़िवादी प्रथा जारी है। समाज की यह रूढ़िवादी सोच पीरियड्स से जुड़ी हुई है। बड़े अफसोस की बात है कि इस आधुनिक युग में भी पीरियड्स को यहां एक अभिशाप के रूप में देखा जाता है। इससे महिलाओं का जीवन नर्क बन जाता है। पीरियड्स के रूप में ईश्वर ने स्त्रियों को जो वरदान दिया है, उसे यहां अपशकुन माना जाता है।"
पीरियड्स के दिनों के लिए बनाए गए नियम
पीरियड्स के दौरान हमें न केवल अपने धार्मिक जगहों और ईश्वर से, बल्कि अपने घर और रसोई घर से भी दूर रखा जाता है। इसके लिए औपचारिक रूप से कानून भी बनाए गए हैं। पीरियड्स के पहले चरण में हमें 21 दिनों तक गौशाला में गाय, भैंस और अन्य घरेलू पशुओं के साथ घर से बाहर रखा जाता है। हम समझते थे कि ऐसा पहले पीरियड्स के दौरान होता होगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है। दूसरी बार हमें 15 दिनों के लिए अपने घर से बाहर रहना पड़ता है। तीसरी बार 11 दिन, चौथी बार 7 दिन और पांचवीं बार 5 दिन के लिए हमें गौशाला में रहने को मजबूर किया जाता है।
ये कहानी 10वीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़कियों का एक समूह का है, जो गांव में पीरियड्स के नाम पर निभाए जा रहे रिवाजों के विरुद्ध आवाज़ उठा रही हैं। इन लड़कियों का कहना था, "इस अवधि के दौरान न केवल हमें घर से बाहर रहना पड़ता है, बल्कि नहाने और नित्य क्रिया के लिए भी सुबह जल्दी उठना पड़ता है। इसके लिए हमें ऐसी जगह जाना पड़ता है, जहाँ कोई हमें देख न सके। जब मासिक धर्म की अवधि पूरी हो जाती है तो हमें नदी में ही सुबह का स्नान करना होता है। इस दौरान हमें घर के शौचालय का उपयोग करने की भी अनुमति नहीं होती है।"
किसी भी किशोरी के लिए सबसे भयानक पल दिसंबर और जनवरी का समय होता है, जब उन्हें सुबह 4-5 बजे नहाने के लिए कड़ाके की ठंड में भी नदी पर जाना होता है। इस दौरान हम किसी सामान को छू भी नहीं सकते हैं क्योंकि उसके अशुद्ध होने का खतरा होता है। वे बताती हैं, "पीरियड्स के दौरान हमारे बिस्तर भी अलग होते हैं जिसे हमें रोज़ धोना होता है।" गांव के बुजुर्गों का मानना है कि पीरियड्स के दौरान नारी इतनी अपवित्र होती है कि यदि वह किसी व्यक्ति को छू ले तो वह बीमार हो जाएंगे। इसीलिए ऐसा होने पर उस पर गोमूत्र छिड़क कर पवित्र किया जाता है।
पीरियड्स में स्वच्छता उत्पादों और पौष्टिक भोजन की कमी
चौंकाने वाली बात यह है कि मासिक धर्म के दौरान जब किशोरियों को सबसे अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है, उनमें पर्याप्त भोजन और पोषक तत्वों की कमी होती है। ऐसे समय में उन्हें दो रोटी भी ढंग से नहीं मिलती है जिससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। गांव की ही एक अन्य लड़की ने कहा, "इस दौरान हमें समय पर खाना भी नहीं मिलता जिससे हमें कमजोरी महसूस होती है। इस कारण हम ठीक से पढ़ाई भी नहीं कर पाते हैं। पीरियड्स के दौरान हमारे पास पैड की सुविधा नहीं होती है। इसलिए हमें कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे कई तरह की जानलेवा बीमारियों का खतरा बना रहता है।"
गांव की ही एक अन्य लड़की ने कहा "जब हमारी छोटी बहनों को पीरियड्स की समस्या होती है, तो यह और भी भयानक हो जाता है। उस समय उन्हें अपना सारा काम खुद ही करना पड़ता है क्योंकि दूसरे तो उनके आसपास भी नहीं जाते हैं।" गौशाला में बच्चियों को रात में घर से दूर अकेले सोने में डर लगता है, इसलिए वे ठीक से सो भी नहीं पाती हैं। जब हम छोटे थे और इस दौर से गुजर रहे थे तो हमें एक अजीब सा डर था कि हम हर महीने कुछ दिनों के लिए कैदियों की तरह होंगे। जैसे कि हमने कोई अपराध किया हो, जिसके लिए हमें सजा मिल रही थी। रात में यह सोच कर हम अकेले में रोते रहते थे कि कितना अच्छा होता अगर यह पीरियड ही न आया होता। प्रकृति ने तो पीरियड्स वरदान के रूप में दिया है, लेकिन समाज के रीति रिवाजों ने इस दौरान हमारी हंसती-खेलती जिंदगी छीन ली है।
पीरियड्स से आज भी जुड़े हैं अंधविश्वास
इस संबंध में गांव की 81 वर्षीय बुज़ुर्ग भगवती देवी कहती हैं, "माहवारी की यह प्रक्रिया मेरे दादा-दादी के समय से चली आ रही है। हम भी बचपन से इसका अभ्यास करते आ रहे हैं और यह ऐसे ही चलता रहेगा।" उनका मत है कि यह ईश्वर की बनाई व्यवस्था है। अगर हम इसे नहीं मानते हैं तो हम पर पाप लगेगा। इस संबंध में वह तर्क देती हैं, "मेरी मां ने मुझे बताया था कि एक बार पीरियड्स के दौरान एक महिला मंदिर गई थी तो वह पागल हो गई। इसलिए गांव वालों को डर है कि वे किसी भी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना चाहते हैं। जो भी इसका विरोध करता है वह पागल हो सकता है।
इस डर से वे सभी मानते हैं कि पीरियड्स के दौरान लड़कियां दूसरों से अलग होती हैं। इसलिए उन्हें रसोई में भी नहीं जाने दिया जाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि अगर वे किसी को इस दौरान छूती हैं, तो वह बीमार हो जाएगा। हालांकि इन सभी तर्कों का वह कोई आधार नहीं बता सकीं। वहीं गांव की 31 वर्षीय एक महिला पुष्पा देवी ने बताया कि उनके मायका में ऐसी किसी परंपरा को कभी निभाया नहीं गया। वहां पीरियड्स के दौरान लड़कियां आम दिनों की तरह ही जीवन जीती हैं और किसी को भी पता नहीं चलता है कि वह पीरियड्स की प्रक्रिया से गुज़र रही हैं। लेकिन यहां ससुराल आकर उन्हें पता चला कि पीरियड्स के दौरान लड़कियों और महिलाओं के साथ कितना भेदभाव होता है।
गांव की एक शिक्षिका चंद्र गड़िया कहती हैं, "हमारा उत्तराखंड भारत के सबसे अच्छे राज्यों में से एक है, जिसे देवभूमि माना जाता है। पीरियड्स से जुड़ी तमाम भ्रांतियां ग्रामीण समाज द्वारा बनाए गए हैं। भगवान ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा है। लेकिन गांव वालों का मानना है कि पीरियड्स के दौरान लड़कियों को अलग रखना चाहिए और मंदिर नहीं जाना चाहिए, नहीं तो इससे लड़की या दूसरों की मानसिक स्थिति खराब हो सकती है।" उनके अनुसार यह सब मनगढ़ंत और पुरानी बातें हैं जिनमें लोग आज भी जी रहे हैं। वह कहती हैं कि यह सब अंधविश्वास की बातें हैं जो लोगों ने अपने दिलो-दिमाग में बसा ली हैं।
चूंकि इन रिवाजों और बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, इसलिए हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपनी वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को यह समझाएं, ताकि उनमें एक सकारात्मक बदलाव ला सकें। इसके खिलाफ जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। अगर एक गांव में भी यह प्रथा खत्म हो जाती है तो धीरे-धीरे दूसरे गांवों में भी यह अतार्किक प्रथा खत्म हो सकती है। चंद्र गड़िया के अनुसार इस मानव निर्मित कानून को बदलने की जल्द से जल्द आवश्यकता है। केवल रीति-रिवाज के नाम पर महिलाओं और किशोरियों के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है।
यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के अंतर्गत उत्तराखंड से डॉली गड़िया ने चरखा फीचर के लिए लिखा है