

करीब दो साल पहले सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर देश के 272 जिलों में नशा मुक्त भारत अभियान की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य युवाओं को शराब और गुटखा जैसी नशे की सभी लतों से मुक्त कराना था, ताकि उनकी क्षमताओं का सदुपयोग हो सके। लेकिन दो साल बाद भी यह अभियान कारगर साबित होता नज़र नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है कि आज नशा अपने नाम के विपरीत समाज की झूठी शान बन गया है। कहीं मादक पदार्थों का नशा है, तो कहीं शराब, जर्दा, गुटका, बीड़ी का नशा है, जिसमें हर वर्ग के लोग शामिल हैं. इसकी लत ने समाज के हर उम्र को अपना शिकार बनाया है। देश के भावी युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा चिंता का विषय है।
दरअसल नशा एक ऐसा जाल है जिसमें फंसने के बाद इस लत से छुटकारा पाना बहुत ही मुश्किल होता है। आज युवाओं के साथ नई पीढ़ी भी इसके सेवन से अछूती नहीं है। समाज में कम उम्र के स्कूली बच्चे अक्सर दुकानों से गुटखा खरीदते पाए जाते हैं। यह बुराई केवल शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि गांव-गांव तक इसने पैर पसार लिया है। बच्चे-बच्चे इसकी जाल में फंसते जा रहे हैं। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह बुराई अपना पांव फैला चुकी है। राज्य के अल्मोड़ा स्थित ग्राम सिरसौड़ा के स्थानीय दुकानदार गोपाल सिंह बताते है उनकी दुकान में प्रतिदिन 2000 से अधिक गुटके के पैकेट बिकते हैं, जिसमें 50 प्रतिशत खरीदने वाले हाईस्कूल और इंटर के बच्चे होते हैं। उनके पास इसे खरीदने के लिए धनराशि कैसे आती है? यह चिंता का विषय है।
उत्तराखंड में नशे का आदी बनते बच्चे
नशे की पूर्ति अक्सर गलत कार्यों की ओर धकेलती है। आज नशे के बिना कोई समारोह नहीं होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में दूल्हे की गाड़ी के साथ चलने वाली गाड़ियों को शराब की दुकान पर रूकते व लोगों को शराब खरीदते देखना आम बात है। देश में अधिकांश मौतों में एक बड़ा कारण नशा भी बताया जाता है। इसके बावजूद भी सभी वर्गों द्वारा इसका सेवन किया जाता है। राज्य के प्रमुख पर्यटन स्थल नैनीताल स्थित सेलालेख गांव के देवेंद्र मेलाकानी बताते हैं कि गांव के छोटे-छोटे बच्चे भी नशे की लत के दिवाने होते जा रहे हैं। कई बार उन्हें प्रतिबंधित नशाओं का सेवन करते भी देखा जाता है। सिगरेट या गुटखा खाने में उनके द्वारा किसी भी प्रकार का लिहाज नहीं किया जाता है। उनके मन में कोई भय नहीं रह गया है। गांव में खुले में नशा करना आम हो गया है। युवाओं में नशे का बढ़ता चलन अत्यन्त ही निराशाजनक है।
अल्मोड़ा स्थित तोली गांव के कमल वर्मा बताते हैं कि वह विगत 5 वर्षों से कबाड से संबंधित कार्य कर रहे हैं। उनके द्वारा प्रतिदिन जंगलों से 40 से 50 बोतल शराब की एकत्र की जाती है। क्षेत्र में जर्दा, खैनी और गुटखा इत्यादि के इतने रैपर मिलते होते है कि यदि उनको एकत्र कर तौला जाए, तो प्रतिदिन पांच किग्रा एकत्र हो जाएगा। वह कहते हैं कि भारत सरकार द्वारा स्वच्छ भारत मिशन अभियान चलाया जा रहा है पर अफसोस इस बात का है कि हमारे पढ़े-लिखे समाज के लोग ही स्वच्छता के विपरित कूड़ा फैलाकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। प्लास्टिक, जो पर्यावरण के लिए अत्यन्त ही नुकसानदायक है, इसके प्रयोग को न कर पर्यावरण को स्वच्छ सुरक्षित करने में सहयोग करने की आवश्यकता है।
नशीले पदार्थों के विज्ञापनों पर लगानी होगी रोक
आज देश के युवाओं के आदर्श कोई सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं वरन् वह लोग होते हैं जो अपने स्वार्थ व कम्पनियों से मिलने वाली मोटी रकम के आगे नशे के उत्पादों का प्रसार करते हैं। ऐसे विज्ञापनों में रोक लगाई जानी चाहिए। ऐसे लोग पैसों की खातिर युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. इस प्रकार के विज्ञापनों से बचाकर युवाओं के भविष्य को सुरक्षित किया जाना होगा, जबकि कम्पनियों द्वारा साफ-साफ अपने उत्पादों में इसके नुकसानों का जिक्र किया जाता है। हमें समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है। ड्रग और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में दुनिया भर में लगभग 275 मिलियन लोगों ने किसी न किसी प्रकार से नशा और ड्रग का सेवन किया है। भारत में भी यह स्थिति चिंताजनक है। कदम-कदम पर गुटखा और पान मसाला की दुकानों पर लटके पाउच और उसे खरीद कर खाना शान समझने वाली युवा पीढ़ी इस बात से अनजान है कि वह इससे मौत और कैंसर जैसी गंभीर बीमारी को आमंत्रित कर रही है।
सरकार द्वारा नशा मुक्ति के लिए कई कदम उठाये जाते हैं, परंतु लोग अवैध रूप से इसका व्यापार कर रहे हैं। सरकार की ओर से कठिन नियमों के साथ सजा का प्रावधान किया जाना होगा ताकि पैसों के लालच में लोग इस अवैध कार्य को न कर सकें। नशा व्यक्ति के न केवल शरीर बल्कि उनकी मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। इसके उपयोग से अक्सर घरों में अशांति का माहौल होता है, जो पारिवारिक लड़ाइयों का कारण बनता है। नशे के चलते घरों को टूटते पड़ोसी को पड़ोसी से लड़ते देखा गया है। यह समाज के लिए एक दंश के रूप में हो गया है जो दिन प्रतिदिन सभी वर्ग के लोगों को अपने विष से प्रभावित कर रहा है।
नशा मुक्ति कार्यक्रमों में छात्रों और महिलाओं को करें शामिल
नशे पर लगाम लगानी है तो सबसे पहले स्कूलों व कॉलेजों में नशा मुक्ति अभियानों का इस प्रकार संचालन किया जाए। युवा पीढ़ी को इसके दुष्परिणाम समझ में आना चाहिए। महिलाओं द्वारा नशा मुक्ति कार्यो में सकारात्मकता दिखायी जाती है। अक्सर इस प्रकार के अभियानों में महिलाओं की भूमिका अहम होती है। योजनाओं में महिला की भागीदारी से बदलाव संभव है। स्वयंसेवियों द्वारा घर-घर जाकर गांव के जनप्रतिनिधियों, महिलाओं, बुजुर्गों व नौजवानों को जागरूक किया जाना चाहिए। उन्हें किसी भी प्रकार के समारोहों में स्वयं व दूसरों को नशे से दूर रहने के प्रति जागरूक कर नशे के दुष्परिणामों से अवगत कराने की आवश्यकता है क्योंकि जागरूकता ही इससे लड़ने का सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकता है।
यह आलेख हल्द्वानी, उत्तराखंड से नरेंद्र सिंह बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है