

शिक्षा वह मूलभूत आवश्यकताओं में से एक कारक है जो मनुष्य को बेहतर जीवन जीने के लिए तैयार करती है। इसकी प्रारंभिक चरण विद्यालय से प्रारंभ होता है और विश्वविद्यालय तक जाता है। दुर्भाग्य से बिहार राज्य वह प्रांत है जिसकी स्कूली व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। लेकिन पूरी दुनिया को यह दिखाने की कोशिश होती है कि सब कुछ ठीक है।
बिहार में सबसे ज्यादा शिक्षकों की रिक्तियां है
बिहार में 2005 से लगातार नीतीश कुमार की सरकार रही है जो यह दावा करती है कि शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक बजट का प्रावधान किया है। लेकिन वहीं सरकार यह भी बताती है कि कुल मिलाकर 3 लाख शिक्षकों की रिक्तियां है। इन रिक्तियां को भरने के लिए हाल में ही सरकार ने एक नई शिक्षक भर्ती नियमावली लेकर आई है। प्रश्न यह है कि सरकार बिहार के 38 जिलों के विद्यालयों को किस प्रकार संचालन कर रही है और 3 लाख शिक्षकों के बदले कौन सी व्यवस्था बना रखी है कि सरकार का काम चल जा रहा है।
बिहार में भांति-भांति प्रकार के शिक्षक हैं
सरकार ने शिक्षा तंत्र को मज़ाक बना कर रख दिया है। 2005 से पूर्व BPSC के माध्यम से शिक्षक की नियुक्ति होती थी और उन्हें नियमित शिक्षक कहा जाता था। उन्हें राज्यकर्मी का दर्जा प्राप्त था। लेकिन इस काल में 'शिक्षामित्र' पद का सृजन हुआ जिसका उद्देश्य प्राथमिक विद्यालय में सहायक की भूमिका को निर्वहन करना था जो 1500₹ के मानदेय पर बहाल हुए। जब 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बिहार में आई और उसके मुखिया सुशासन बाबू नीतीश कुमार को बनाया गया, तब उन्होंने बड़ी संख्या में 'डिग्री दिखाओ और नौकरी पाओ' जैसी स्थिति उतपन्न करके 'संविदा' पर 'नियोजित शिक्षकों' को बहाल किया। उन्हें भी मानदेय पर रखा। राज्यकर्मी का दर्जा समाप्त कर दिया। साथ ही साथ 'शिक्षामित्रों' को भी नियोजन में समायोजित किया गया। उसके बाद माननीय पटना उच्च न्यायालय के आदेश से 34540 शिक्षकों की पैनल को नियमित शिक्षकों के रूप में बहाल किया गया। अभी हाल में ही एक नई शिक्षक बहाली नियमावली लेकर आई है सरकार जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि पुराने नियम समाप्त हो चुके हैं। अब आयोग के माध्यम से नियमित और राज्यकर्मी शिक्षकों की नियुक्ति की जाएगी। अब प्रश्न उठता है कि जब बिहार में इतने प्रकार के शिक्षक होंगे तो क्या शिक्षा की गुणवत्ता से खिलवाड़ नहीं कर रही है बिहार सरकार।
विद्यालयों को बनाया गया उत्क्रमित
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने नए विद्यालय के सृजन के बजाय पुराने विद्यालयों को बेतरतीब ढ़ंग से उत्क्रमित किया है जो कि यहां के विद्यार्थियों के भविष्य के साथ एक भद्दा मजाक है। जब बिहार में इतने मात्रा में अनुदानित विद्यालय है तो उनको सरकारीकरण के बजाय कम भवन/सुविधाविहीन/शिक्षकविहीन विद्यालयों को उत्क्रमित करने की क्या आवश्यकता थी। कक्षा 1-5 को 6-8 में उत्क्रमित किया है। 6-8 को 9-10 में उत्क्रमित किया है। 9-10 वाले विद्यालयों को 11-12 वीं कक्षा में उत्क्रमित किया गया है, जिसमें न शिक्षक है और न लैब की सुविधा है। न ही भवन है और न ही खेल का मैदान है। पश्न है कि तो कहां है गुणवत्तापूर्ण शिक्षा?
भ्रम में डालती है बिहार की माध्यमिक की रिजल्ट
हाल के दिनों में दसवीं कक्षा और इंटरमीडिएट कक्षा के रिज़ल्ट में अप्रत्याशित रूप से उछाल आया है। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति ने बताया यह अंक देने में वैश्विक रिकॉर्ड बनाया है वह बेहद चिंताजनक है। BSEB बोर्ड के अंक देने के तरीका से CBSE बोर्ड भी आश्चर्यचकित और हतप्रभ है। प्रश्न इसमें यह उठता है कि जब सरकार स्वयं यह मानती है कि बिहार में 3 लाख शिक्षकों की रिक्तियां है तब कौन सा शिक्षक कक्षा में जाकर पढ़ाते हैं जिससे बिहार के बच्चों का रिजल्ट अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहा है? जबकि दसवीं कक्षा तथा बारहवीं कक्षा के छात्रों के पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के रूप में शिक्षक/पुस्तकालय/विज्ञान लैब/सामाजिक विज्ञान संसाधन/खेल का मैदान इत्यादि ।
संभवतः सरकार शिक्षा में गुणवत्ता में विश्वास नहीं करती
बिहार सरकार का पूरा ध्यान 'कक्षा क्राइसिस' को समाप्त करने की न होकर यह ध्यान है कि कैसे हम बच्चों के आंकड़ों को सरकारी बना सके। इसी की बानगी है कि मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना/मुख्यमंत्री पोशाक योजना/मुख्यमंत्री छात्रवृत्ति योजना/मुख्यमंत्री नैपकिन योजना इत्यादि चालू हैं पर शिक्षा के गुणवत्ता में सुधार नहीं है। इस तरह के योजना से सरकार बिहार के बच्चों की भीड़ अवश्य जुटा लेती है लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ समझौता करके भद्दा मज़ाक बना रही है।