

संकुचित सोच के कारण आज भी समाज में माहवारी को अभिशाप माना जाता है। हालांकि यह अभिशाप नहीं बल्कि वरदान है। आज भी समाज महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बारे में बातचीत करने में झिझक महसूस करता है। जबकि मासिक धर्म के बिना गर्भधारण असंभव है। मानव के जन्म की कहानी इसी मासिक धर्म से जुड़ी हुई है। ग्रामीण महिलाएं तो मासिक धर्म पर बातचीत करने से भी शर्माती हैं। जागरूकता के अभाव में वह इसे अशुभ तथा बुरा मानती हैं। माहवारी के वक्त महिलाओं को रसोई में प्रवेश, मंदिर में प्रवेश, किसी मांगलिक अनुष्ठान में आने-जाने तथा शुभ कार्यों को करना पाप समझा जाता है। इस दौरान उन्हें कई प्रकार की मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है। माहवारी के दौरान ग्रामीण महिलाएं व किशोरियां सैनिटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं। इसकी जगह वह पुराने कपड़े का उपयोग करती हैं। जबकि कपड़े के उपयोग करने से संक्रमण होने का खतरा बढ जाता है। गंदे व पुराने कपड़ों के इस्तेमाल से उन्हें विभिन्न प्रकार की बीमारियों के होने का खतरा रहता है।
क्या गांवों तक पहुंची पीरियड्स जागरूकता
सरकार भले ही माहवारी के दौरान पैड के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करती हो, लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 22 किमी दूर कुढनी प्रखंड के मगरिया गांव की महिलाओं व किशोरियों को पता तक नहीं कि सैनिटरी नैपकिन यानि पैड क्या होता है? कपड़े की बजाय उन्हें और कुछ उपयोग करना नहीं आता है। कपड़े से उन्हें कितना नुकसान होता है, इसका उन्हें अंदाजा तक नहीं है। इस संबंध में गांव की एक 15 वर्षीय किशोरी रानी कहती है कि मासिक धर्म के वक्त बहुत परेशानियां होती हैं। कपड़े का उपयोग करके स्कूल जाने के बाद वह खेल नहीं पाती है। इसके बारे में वह किसी को बोल भी नहीं पाती है। उसे कपड़े के इस्तेमाल के कारण खुजली होने लगती है, फिर भी वह चुप रह जाती है। जबकि 16 वर्षीय राधा का कहना है कि मासिक धर्म के समय मां उसे कपड़ा देती है। गंदे कपड़े के इस्तेमाल से सफेद पानी (लिकोरिया) की शिकायत हो गई है। शर्म से वह इस बारे में किसी को बोल तक नहीं पाती थी। सैनिटरी पैड का तो उसके घरवाले नाम तक नहीं जानते थे।
किशोरियों को नहीं मिल रहा स्वच्छता उत्पाद
इस संबंध में, गांव की आशा कार्यकर्ता मीना देवी कहती हैं कि किशोरियों के लिए स्वास्थ्य विभाग की तरफ से माहवारी के लिए कोई पैड उपलब्ध नहीं कराया जाता है। उन्हें मासिक धर्म के समय साफ-सफाई और उपचार आदि की जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। ज्यादातर किशोरियों में खून की कमी रहती है। उन्हें एनीमिया से बचने के लिए समय-समय पर आयरन की गोली देना आवश्यक है। ऐसे में विभाग की निष्क्रियता के कारण यहां की महिलाएं और किशोरियां स्वास्थ्य संबंधी समस्या के लिए निजी क्लीनिक ढूंढ़ती हैं।जबकि आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर महिलाएं और किशोरियां बिना इलाज के जीने पर मजबूर हैं। गांव के प्राइमरी स्कूल की कुछ लड़कियों ने बताया कि सरकार की तरफ से उन्हें सैनिटरी पैड के लिए पैसे नहीं आते हैं।
स्वच्छता उत्पाद न होने से जूझ रही महिलाएं
15 वर्षीय काजल कुमारी कहती है कि कभी सैनिटरी पैड इस्तेमाल नहीं की हूं। मुझे कपड़ा इस्तेमाल करने में दिक्कत होती है। पीरियड्स के दौरान घर से स्कूल तक आधा घंटा चलना पड़ता है। खून मेरे कपड़े में भी लग जाता है और गीलापन महसूस होता है। स्कूल तक पैदल जाने में परेशानियां होती हैं, इसलिए पीरियड्स में मैं स्कूल नहीं जाती हूं। ललिता कुमारी का कहना है कि जब मैं कक्षा पांचवी में थी हमारे स्कूल में सैनिटरी पैड देने कुछ लड़कियां आई थीं और पीरियड्स के बारे में भी उन्होंने जानकारी दी थी। एक बार ही हमें सैनिटरी पैड दिया गया था। अब कक्षा आठवीं में हूं लेकिन अभी तक कभी पैड के लिए पैसा नहीं आया। स्कूल में पीरियड्स होने पर मुझे घर वापस आना पड़ता है। स्कूल में कोई उचित व्यवस्था नहीं है और शौचालय की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।
मासिक धर्म स्वच्छता के बावजूद नहीं हुई जागरूकता
गौरतलब है कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय किशोरियों के बीच जागरूकता बढ़ाने, उच्च गुणवता वाले सैनिटरी नैपकिन तक उनकी पहुंच व उपयोग बढ़ाने, पर्यावरण के अनुकूल तरीके से नैपकिन के सुरक्षित निष्पादन आदि के लिए 2011 से मासिक धर्म स्वच्छता को लागू किया है। जिसके लिए शिक्षकों, सहायक नर्स, आशा कार्यकर्ता और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरकेएसके) के तहत जागरूकता फैलाने की ज़िम्मेदारी दी गई है। मिशन शक्ति के ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत भी सैनिटरी नैपकिन के प्रति जागरूकता पैदा करना उद्देश्य में शामिल किया गया है। स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली (एचएमआइएस) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021-22 में लगभग 34।92 लाख किशोरियों को हर महीने सैनिटरी नैपकिन के पैक उपलब्ध कराए गए हैं। सरकार किफायती दाम में देश के 9000 जन औषधि केंद्रों पर सैनिटरी नैपकिन ‘सुविधा’ नाम से ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल प्रति 1 रुपए उपलब्ध कराती है। राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट के अनुसार 15-24 आयु वर्ग में सैनिटरी नैपकिन का उपयोग 42 प्रतिशत से बढ़कर 64 प्रतिशत हो गया है।
क्या बताते हैं आँकड़े
यूनिसेफ के मुताबिक भारत में 13 प्रतिशत लड़कियों को मासिक धर्म से पहले उसकी कोई जानकारी नहीं होती है। इसके कारण उन्हें स्कूल तक छोड़नी पड़ती है। मासिक धर्म महिलाओं की शिक्षा, समानता, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालता है। मासिक धर्म स्वच्छता के लिए भारत सरकार की पहल- शुचि योजना, मासिक धर्म स्वच्छता योजना, सबला कार्यक्रम, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, स्वच्छ भारत अभियान आदि के तहत भी जागरूकता, पीरियड की समस्या, नैपकिन आदि की जानकारी व सेवा मुहैया कराने का प्रावधान वर्णित है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ज़मीनी हकीकत इसके बिल्कुल विपरीत है।
स्कॉटलैंड में मिल रहा मुफ़्त स्वच्छता उत्पाद
स्कॉटलैंड दुनिया का पहला देश है जहां फ्री पीरियड प्रोडक्ट सभी के लिए निःशुल्क कर दिया है। वैसे ही भारत सरकार को भी सभी स्कूल, कॉलेजों, सार्वजनिक जगहों के बाथरूम में निःशुल्क पीरियड कीट उपलब्ध कराना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों के सभी आंगनबाड़ियों केंद्रों और स्कूलों में नैपकिन मुफ्त उपलब्ध करानी चाहिए। ग्रामीण इलाकों में जहां जन औषधि केंद्र नहीं है वहां आशा दीदी, पीएचसी और पंचायत कार्यालयों आदि में भी निःशुल्क अथवा किफायती दामों में उपलब्ध कराना आवश्यक है। हालांकि केवल सरकारी प्रयास से मासिक धर्म की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकता अपितु सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर भी विचार करने की आवश्यकता है। ऐसे में, सरकार को ग्रामीण इलाकों की किशोरियों के बारे में गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है। यह उनके भविष्य और स्वास्थ्य का सवाल है।
यह आलेख मुजफ्फरपुर, बिहार से निशा साहनी ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। निशा वर्तमान में बीआर बिहार विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई कर रही है