इन दिनों टीवी पर एक विज्ञापन काफी आ रहा है। देश की आधी आबादी का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ इसलिए ख़ास मौक़ों पर ख़ास जगह नहीं पहुँच पाया क्योंकि वो पीरियड्स के शुरुआती 5 दिन ऐसी अच्छी क्वालिटी के सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल नहीं कर पाता जो उनके फ्लो को कंट्रोल कर सके। इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाता, इसे समझने के लिये किसी ख़ास रिसर्च की ज़रूरत नहीं। हर कोई सैनेटरी नैपकिन नहीं खरीद सकता। बाज़ार में बिकने वाले सैनेटरी नैपकिन 25 रुपये से लेकर 100 रुपये तक छह से सात पीस मिलते हैं। अगर सेहत से जुड़े मानकों पर चला जाए तो 7 पीस शुरुआती दो दिन में खत्म हो जाते हैं। यानी अगर आपको इन दिनों नॉर्मल ज़िंदगी जीने के लिए बाहर आना जाना है तो 2 पैकेट सेनेटरी नैपकिन आपकी ज़रुरत हैं।
यूँ तो सैनेटरी नैपकिन लग्ज़री कैटेगरी में आने वाली चीज़ नहीं है, ये ज़रूरत है (ज़रूरत है, सिर्फ औरतों की)। लेकिन जिनके पास रहने-खाने-ओढ़ने-पहनने जैसी बेसिक ज़रूरतों का इंतेज़ाम नहीं होता बेशक उनके लिए ये लग्ज़री ही है। ऐसे में होता यही है कि हर औरत के पास इतनी आज़ादी नहीं बचती कि वो पीरियड्स के दौरान अपने काम पर जा सके, कहीं यात्रा कर सके, स्कूल जा सके, या घर के काम आसानी से निपटा सके। क्योंकि कपड़ा भले ही कितना साफ-सुथरा, अच्छी क्वालिटी का और मोटा क्यों न हो, वो होता कपड़ा ही है। जो पीरियड्स के शुरुआती दिनों के फ्लो को ज्यादा से ज्यादा एक घंटे तक रोक सकता है।
कहने वाले कहते हैं कि सैनेटरी नैपकिन की जगह कपड़ा इस्तेमाल करने से पर्यावरण को कम ख़तरा होता है। सैनेटरी नैपकिन पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं। लेकिन कभी इस पर चर्चा नहीं की जाती कि क्या हमारे देश में ऐसे वैज्ञानिक या एक्सपर्ट नहीं हैं जो ऐसे सेनेटरी नैपकिन बना सकें जिनसे पर्यावरण को नुकसान न हो? क्या सरकारें इस तरह की रिसर्च को बढ़ावा नहीं दे सकती? अब तक तो ऐसी कोई जानकारी सामने नहीं आई है कि इस दिशा में काम हो रहा है। क्या पता हो भी रहा हो, लेकिन इस काम में इतना वक़्त गुज़र गया कि कई पीढ़ियों की महिलाओं ने अपनी ज़िन्दगी बिना अच्छे किस्म के सैनेटरी नैपकिन के गुज़ार दी।
फ़र्ज़ कीजिये पीरियड्स मर्द और औरत दोनों को होते। दोनों को हर महीने के 5-6 दिन सैनेटरी नैपकिन की ज़रूरत होती। तो क्या तब भी हमारी सरकारें और प्रशासन इस चीज़ के लिए इतनी बेफिक्र होतें? जवाब आप ख़ुद सोचिये। जिस देश में मुफ्त कंडोम बॉक्स लगाए जाते हैं, वहां मुफ्त सैनेटरी पैड्स बॉक्स लगाना असंभव क्यों है? सैनेटरी नैपकिन मुफ्त दिये जाने के नाम पर कुछ सरकारी डिस्पेंसरी और अस्पतालों के नाम क्यों ले लिये जाते हैं (हालांकि मिल वहां भी नहीं पाते)? हम क्यों न मानें कि कंडोम मुफ्त इसलिए मिलते हैं क्योंकि उसका वास्ता पुरूषों से भी है। सैनेटरी नैपकिन्स इसलिए कंडोम की तरह मुफ्त नहीं मिल सकते क्योंकि उसका लेना देना सिर्फ और सिर्फ औरतों से है।
फ़िलहाल हम महिलाओं के पास यही विकल्प है कि हम बाजार में बिकने वाले सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करें ताकि महीने के 5-6 दिन हमें अपने काम, पढ़ाई और दूसरी ज़रूरी गतिविधयों को मिस न करना पड़े। भले ही वो कितना ही महंगा क्यों न हो और उस पर सरकारें कितना ही टैक्स क्यों न लगाएं क्योंकि महीने के 5-6 दिन हम कम से कम इसलिए तो नहीं गंवा सकते क्योंकि हमारी सरकारें पक्षपाती हैं। ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं। और मर्दवादी सोच से भरी हुई हैं।
The post अगर पीरियड्स मर्दों को भी होते तब भी सैनेटरी नैपकिन इतने महंगे होते? appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.