माहवारी जैसी एक शारीरिक प्रक्रिया को समझने में शायद हम नाकाम रहे हैं, जिसका नतीजा ये हुआ है कि अब इस पर विमर्श करना भी एक वर्जना बन चुका है। अगर पाठक पुरुष है तो आपने अपनी बहन, दोस्त, पत्नी से माहवारी पर कब खुल कर विमर्श किया था? कब एक बहन, दोस्त या पत्नी ने अपने भाई, दोस्त, माता-पिता या पति से खुल कर विमर्श किया होगा? हम सबने इसे एक सामाजिक मुद्दा खुद बनाया है।
क्यूं नहीं माहवारी पर कोई चर्चा होती है? क्यूं नहीं इस पर भी संवाद स्थापित किया जा सकता है? आज अगर हमने संवाद स्थापित किया होता और इस प्रक्रिया को समझा होता तो महिलाओं और लड़कियों को जो समस्याएं आती हैं वो नहीं होती।
कितनी ही लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं। पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय पर दिए हुए माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश के मुताबिक़ 60 फीसदी लड़कियां माहवारी के वजह से स्कूल जाना बंद कर देती हैं। 86 फीसदी लड़कियां इसके लिए पहले से तैयार नहीं होती हैं। भला कैसे तैयार होंगी? उस लड़की की माँ खुद इन विषयों पर बात नहीं करना चाहती तो उसे कौन बताएगा कि इस आयु के बाद ऐसे-ऐसे शारीरिक बदलाव आते हैं।
अब एक नज़र ज़रा इस पर भी डालिए, 44 फीसदी लड़कियों का ये मानना था कि माहवारी के दौरान जिन बंधनों का सामना उन्हें करना पड़ता है, उससे वो कहीं न कहीं अपने आप को दबा हुआ महसूस करती हैं और एक असमंजस की स्थिति में रहती हैं। 87 फीसदी आज भी प्रक्रिया के दौरान रिसाव रोकने के लिए कपड़े का प्रयोग करती हैं और 90 फीसदी को इस बात की महत्ता का ही ज्ञान नहीं है कि कपड़े को धुलकर और सुखाकर पहनना क्यूं ज़रूरी है?
समस्याएं जिनका सामना आज लड़कियों /महिलाओं को करना पड़ता है :
- समाज के हर तबके को माहवारी का ज्ञान न होना। क्यूं होती है और इसका उपचार क्या होना चाहिए?
- माहवारी से पहले किशोरियों को इसके बारे में कोई ज्ञान न होना।
- माहवारी के दौरान सही शोषकों का प्रयोग न करना, जिसके वजह से कई प्रकार की बीमारी हो जाना।
- सस्ते और सुरक्षित नैपकिन्स उपलब्ध न हो पाना, बाज़ार में मिलने वाले नैपकिन्स या शोषक, गांव की महिलाओं के लिए बहुत महंगे पड़ते हैं जिस कारण वो कपड़े का उपयोग करती हैं।
- दर्द और रिसाव से दैनिक क्रियाओं में परेशानी होना।
- दर्द को दूर करने के लिए दवाइयां लेने में कोताही।
- स्कूल स्तर पर न तो आपातकालीन स्थिति में नैपकिन्स मुहैया कराने की कोई योजना, न ही दर्द को दूर करने की दवाई की उपलब्धता। लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट और कपड़े तथा शरीर के साफ़ सफाई के लिए कोई इंतज़ाम न होना।
- समाज की संकीर्ण सोच जो कि लड़कियों/महिलाओं को आज भी माहवारी को एक वर्जना के रूप में देखने पर मजबूर कर देती है।
- नैपकिन्स और कपड़े के डिस्पोजल के लिए कोई निश्चित और उपयुक्त प्रक्रिया का अभाव जिसके वजह से पर्यायवरण तथा सेहत पर बुरा असर पड़ता है।
इन्हीं समस्याओं को दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने सन 2010 में माहवारी स्वास्थ्य योजना (MHS) को शुरू किया था। इसके अंतर्गत 20 राज्यों के 152 जिलों में इस योजना को एक पायलट परियोजना के तौर पर आज़माया गया। केरल राज्य में स्रीचित्रतिरुनल इंस्टिट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी, त्रिवेंद्रम ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें उन्होंने पलक्कड़ जिले में इस योजना से आए बदलावों को चिन्हित किया है। केरल राज्य में MHS को 7 जिलों में लागू किया गया था जिसमें से पलक्कड़ भी एक जिला है। 2010 में इस जिले में 1,50,575 किशोर लड़कियां थीं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सरकार ने HLL Lifecare Ltd नामक कंपनी से “freedays” नाम वाले सेनेटरी नैपकिन्स इन जिलों में वितरण करने के लिए भिजवाए। एक नैपकिन का दाम एक रुपये। पर यह उतना कारगर नहीं रहा जितना होना चाहिए था।
इसी रिपोर्ट के अनुभाग 8 के मुताबिक़, जो नैपकिन्स के कार्टन जिले तक पहुंचते हैं, उन्हें जब जूनियर प्राथमिक स्वास्थ्य नर्स (JPHN) द्वारा गांव की ASHA को देने के लिए जब खोला जाता है तो उनमें से हर कार्टन में से औसतन 6 नैपकिन्स गायब पाए जाते हैं। समस्या यहीं खत्म नहीं होती है। अगर इन freedays की बाज़ार में मिलने वाले नैपकिन्स से तुलना की जाए तो पता चलता है कि सरकार द्वारा दिए जा रहे नैपकिन्स लम्बाई में छोटे होते हैं। बाज़ार में आने वाले नैपकिन्स 230 मिलीमीटर लम्बे होते हैं जबकि “freedays” 210 मिलीमीटर लम्बे हैं। ये नैपकिन्स उतने चौड़े नहीं जितने कि बाज़ार में मिलने वाले नैपकिन्स होते हैं। इतने पतले हैं कि बहाव को 2 घंटे से ज्यादा नहीं रोक सकते। ये दोनो साइड से सिकुड़ जाते हैं जिसकी वजह से लीकेज हो जाता है और कपड़ों पर दाग लग जाते हैं।
लड़कियों का ये तक कहना था कि वे इन नैपकिन्स को पहन कर स्कूल नहीं जा सकती हैं, क्यूंकि उन्हें अटपटा सा लगता है और परेशान रहती हैं कि कहीं लीकेज ना हो या लड़कों को पता न लग जाए। 2 घंटे की अवधी कुछ भी नहीं होती और जब नैपकिन्स इतने पतले और छोटे हों तो रिसाव होना और प्रबल हो जाता है। ASHA के लिए ये सबसे बड़ी समस्या उभर कर आई है, क्यूंकि लोग अब उन पर भरोसा नहीं कर पा रहे, खराब नैपकिन्स लेने से बेहतर है कि वे इन्हें ले ही न।
इस परियोजना में डिस्पोजल के लिए इन्सिनरेटर के प्रयोग और उसे मुहैया कराने का कोई ज़िक्र नहीं है। बिना इन्सिनरेटर के लोग नैपकिन्स को या तो जला देते हैं या फिर टॉयलेट में बहा देते हैं। ये सही प्रक्रिया नहीं है। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना होगा।
एक और समस्या जो आती है वो है इन नैपकिन्स को रखने की। सरकार ने स्कीम में इतना लिख दिया कि “सुरक्षित और सुदृण जगह” सुनिश्चित की जाए। अब ये सुरक्षित और सुदृण जगह क्या होगी, कहां होगी, कौन सा रूम होगा? क्या कोई अलग रूम बनाया जाएगा? क्या उसके लिए पैसे मिलेंगे? कौन देगा? ऐसे कई सवाल हैं जो इस स्कीम में पूछे जा सकते हैं। पर इनका जवाब आपको मिलेगा नहीं क्यूंकि इनके बारे में कुछ कहा ही नहीं गया है। सुरक्षित जगह नैपकिन्स न रख पाने की वजह से कई बार नैपकिन्स खराब हो जाते हैं। उनकी गुणवत्ता बिगड़ जाती है जिससे किशोरियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।
दिसम्बर 2015 में माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश जारी किए गए। इसके अनुसार न सिर्फ नैपकिन्स को मुहैया कराने की बात की गई बल्कि इस बात को भी समझा गया कि माहवारी की समस्या का निदान सिर्फ नैपकिन्स मुहैया कराने से नहीं हो जाएगा। इस बारे में समाज के हर तबके को जागरूक भी करना पड़ेगा जिससे कि हर व्यक्ति यह समझ सके कि माहवारी असल में है क्या? अगर आप 2015 के माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन दिशानिर्देश को पढ़ें तो उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि:
1)- हर एक किशोरी, औरत, परिवार, किशोर और पुरुष को जागरूकता, ज्ञान और सूचना होनी चाहिए कि माहवारी क्या है? क्यूं होती है? किस प्रकार से इसका सुरक्षित प्रबंधन किया जा सकता है ताकि लड़कियां और औरतें एक आत्मविश्वास और सम्मान भरा जीवन जी सकें।
2)- माहवारी के दौरान हर किशोरी तथा औरत को पर्याप्त, सस्ते और सुरक्षित शोषक मुहैया कराए जाने चाहिए।
3)- हर किशोरी को स्कूल में एक अलग और साफ़ टॉयलेट उपयोग करने के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए जिसमें साफ़-सफाई और कपड़े तथा शरीर धुलने के लिए पर्याप्त जगह हो। पर्याप्त मात्रा में पानी और साबुन की उपलब्धता भी इसी में शामिल की गई है।
4)- हर किशोरी/महिला को डिस्पोजल के लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर प्राप्त होना चाहिए और उसे पता होना चाहिए कि शोषक का उपयोग कैसे किया जाए।
इसी दिशानिर्देश में ये भी कहा गया है कि ये आवश्यक है कि सारे राज्य, जिला तथा लोकल प्राधिकारों, स्कूल, समाज और परिवार समेत एक ऐसा पर्यावरण बनाना होगा जहां माहवारी को एक जैविक क्रिया के रूप में समझा जा सके और अपनाया जा सके। जहां इसे एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया की तरह ही देखा जाए और उसी तरह से इसका उपचार किया जाए।
स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत बनाए जा रहे टॉयलेट इस समस्या को बहुत हद तक समाप्त करने में कारगर हो सकते हैं। दिसम्बर 2015 के ही दिशानिर्देश में एक सर्वे के मुताबिक़ 14,724 सरकारी स्कूलों में से सिर्फ 53 फीसदी में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट बने हुए थे। घरों में भी कुछ यही स्थिति है, 132 मिलियन घरों में आज भी टॉयलेट नहीं है। अगर घर में टॉयलेट होगा, कपड़े और शरीर धुलने के लिए साफ़ सुथरी जगह होगी तो कितनी ही बीमारियों से बचा जा सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के गर्ल्स कॉलेज में भी स्थिति खराब ही है, तो आप सोच लीजिए कि गांवों में क्या होता होगा?
दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की छात्रा से बात करने पे पता चला कि टॉयलेट से मग ही गायब हो जाता है, नैपकिन्स तो दूर की बात है। पाठक समझ सकता है कि हम कहां पर खड़े हैं और हमें कहां तक पहुंचना है।
सुझाव :
- सरकार को सबसे पहला काम जो करना होगा वो लोगों को इस प्रक्रिया से अवगत कराना होगा जैसा कि दिसम्बर 2015 के दिशानिर्देश में बताया गया है।
- साथ ही आधारभूत ढांचा तैयार करना होगा ताकि बिना किसी कठिनाई के सस्ता और सुरक्षित शोषक गावों के लोगों तक समय से और पर्याप्त मात्रा में पहुंच सके।
- सरकार को पुनः उपयोग में लाए जा सके सेनेटरी नैपकिन्स के निर्माण के लिए आगे आ रहे लोगों को प्रोत्साहन देते हुए उन्हें जहां-जहां हो सके कारखानें खुलवाने में सहायता करनी होगी, ताकि सस्ते और सुरक्षित नैपकिन्स लोगों तक पहुंच सकें और बिना देरी के पहुंच सके।
- सरकार को प्राइवेट कंपनियों के साथ मिलकर लोगों को अच्छे और सस्ते नैपकिन्स प्रदान कराने की दिशा में भी सोचना चाहिए तथा लोगों की जागरूकता के लिए भी उन्हीं से सहायता लेने की कोई योजना तैयार करनी चाहिए।
- ASHA पर बोझ हल्का करना होगा और उनके कार्यो का विभाजन करते हुए उन्हें किसी और को सौंपना होगा। आज ASHA को ट्रेनिंग, मासिक मीटिंग, शोषकों का वितरण, उनको ब्लॉक से गावों तक लाने की ज़िम्मेदारी, रिपोर्ट तैयार करके भेजना, हर चीज़ पर नज़र बनाए रखना, जनता से बातचीत और समस्याएं सुनना, उनका निदान करना। ये सब काम अकेले ASHA करती हैं, जिन्हें कम किए जाने की ज़रूरत है।
- नैपकिन्स को रखने के लिए हर स्तर पे चाहे वो ब्लॉक हो या गांव, एक अलग से कमरे का निर्माण होना चाहिए जिससे कि नैपकिन्स को रखने में दिक्कत न आए और ASHA को इन्हें अपने घर पर न रखना पड़े।
- नैपकिन्स की गुणवत्ता का ध्यान रखा जाए वरना इससे महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है।
अंत में सब कुछ बस इतना सा रह जाता है कि माहवारी एक प्राकृतिक रूप से होने वाली प्रक्रिया है, कम से कम समाज और परिवार इसमें महिलाओं और लड़कियों का साथ दे तो सामने वाले का कष्ट अपने आप आधा हो जाए। इसलिए इस प्रक्रिया को समझिए और अपनी दोस्त, बहन और पत्नी का साथ दीजिए।
The post ऐसी योजनाओं से कैसे बनेगा भारत पीरियड परफेक्ट appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.