पीरियड्स, माहवारी, महीना ये सारे शब्द महिलाओं के जीवन से जुड़े हैं, परन्तु सार्वजनिक रूप से इनके प्रयोग को आज भी ओछापन माना जाता है। कुछ हद तक ही सही लेकिन बदलाव की पहल हो चुकी है। मुझे याद है बचपन में परिवार के साथ टीवी देखते हुए अचानक से सैनेटरी नैपकिन का ऐड आता था तो मैं हमेशा ये समझना चाहती थी की यह होता क्या है? अमूमन ऐसे ऐड्स के आते ही घर की महिलाएं असहज हो जाती थी या फिर चैनल बदल दिया जाता था। लेकिन मौजूदा दौर में यह ज़रूरी है कि माहवारी से जुड़े सभी मसलों पर खुल के बात की जाएं।
यदि AC Nielsen के 2010 के आंकड़ों की बात करें तो पता चलता है कि देश में लगभग 35 करोड़ महिलाएं सक्रीय माहवारी के दौर में हैं, लेकिन सैनेटरी नैपकिन का प्रयोग मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं ही करती हैं। जबकि ग्रामीण इलाकों में सैनेटरी नैपकिन प्रयोग दर की हालत और भी बद्तर है। महिलाओं की कुल जनसंख्या का 75% आज भी गांवों में है और उनमें से सिर्फ़ 2 प्रतिशत ही सैनिटेरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। ज़ाहिर है कि ये आंकड़े बताते हैं कि आज भी ज़्यादातर महिलाओं तक सैनिटेरी नैपकिन की पहुंच नहीं है। सरकार का ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैय्या और जागरूकता की कमी इस समस्या की मुख्य वजहें हैं। अभी तक किसी भी सरकार ने इस ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया है। हाल ही में असम के सिल्चर से सांसद सुष्मिता देव ने भारत सरकार के अलग-अलग विभाग में याचिका डाल के यह मांग की है कि सैनिटेरी नैपकिन पर से 12% का टैक्स हटा कर के उसे टैक्स फ़्री किया जाए ताकि अधिक से अधिक महिलाएं इसे ख़रीदने में समर्थ हों।
हमारा सामाजिक ढांचा कुछ इस तरह बना हुआ है कि आज भी महिलाएं अपने व्यक्तिगत मसलों पर एक महिला से ही बात करने में सहज महसूस करती हैं। ऐसे में आशा और आंगनबाड़ी महिला कार्यकर्ताओं की भूमिका, जागरूकता अभियान में बेहद अहम साबित हो सकती है। वो आसानी से ग्रामीण महिलाओं तक अपनी पहुंच स्थापित करके उन्हें मेंस्ट्रुअल हाइजीन से जुड़ी ज़रूरी जानकारी दे सकती हैं। साथ ही सरकार सेनेटरी नैपकिन का एक्सेस बढ़ाने के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकती है कि प्रत्येक गांव में आशा,आंगनबाड़ी तथा सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर पैड्स बेचा जा सके ताकि महिलाओं को ख़रीदने में आसानी हो।
2016 की डासरा रिपोर्ट के अनुसार भारत में 200 मिलियन (20 करोड़) लड़कियां मेंस्ट्रुअल हाइजीन और शरीर पर पड़ने वाले इसके प्रभाव से अनभिज्ञ हैं। रिपोर्ट बताती है कि आज भी 88 प्रतिशत महिलाएं माहवारी के दौरान पुराने तऱीकों जैसे कपड़े, बालू, राख, लकड़ियों की छाल और सूखी पत्तियों का इस्तेमाल करने को मजबूर है। इनके प्रयोग से शरीर में संक्रमण का ख़तरा बढ़ जाता है और महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर भी प्रभाव पड़ सकता है। ये उस भारत की तस्वीर है जो विकास की दौड़ में विश्वशक्ति तो बनना चाहता है, लेकिन आज भी वो अपने देश की महिलाओं की बुनियादी सुविधाओं को सुनिश्चित नहीं कर पाया है।
माहवारी के दिनों में महिलाओं को सबसे ज़्यादा ज़रूरत साफ़ पानी और शौचालय होती है। क्योंकि पैड्स को बदलने के लिए उन्हें एक ऐसे स्थान की ज़रूरत होती है जहां उनकी निजता भंग न हो। 2011 की जनगणना के मुताबिक़ गांवों में स्वच्छता की व्यवस्था महिलाओं के अनुरूप नहीं है। आज भी ज़्यादातर ग्रामीण घरों में शौचालय और साफ़ पानी की व्यवस्था नहीं है। देश के 66.3% ग्रामीण घरों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है। झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तो स्थिति और ख़राब है। झारखंड के 91.7 प्रतिशत ग्रामीणों के पास शौचालय नही है।
कई ग़ैर सरकारी संगठन ग्रामीण इलाक़ों में आनंदी पैड्स और मुक्ति पैड्स जैसे अभियान चलाकर लोगों को पैड्स के बारे में जागरूक कर रहे हैं और इसका प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गैर सरकारी संगठन और स्वतंत्र पहल के मुकाबले सरकार के पास पैसे, संसाधन और मशीनरी की अधिकता होती है। ऐसे में इस ओर सरकार की भूमिका अपरिहार्य है। सरकार ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को स्किल प्रोग्राम द्वारा सस्तें सैनेट्री नैपकिन बनाने की ट्रेनिग दे सकती है। इससे रोज़गार के अवसर भी सुनिश्चित होंगे और साथ ही साथ पैड्स की उपलब्धता में बढ़ोतरी होगी। व्यापक स्तर पर इसे लागू करने के लिए एक दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ इस दिशा में गंभीर होकर काम करने की आवश्यकता है।
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