“आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की; वंदे मातरम…।”
जागृति फिल्म का यह गीत सन 1954 में कवि प्रदीप ने लिखा था। देश आज़ाद हुए 70 साल हो गए और इन 70 सालों में बहुत कुछ बदल गया है। अब अगर आज बच्चों को हम हिन्दुस्तान दिखाएंगे तो उन्हें हर सड़क से लगे हुए फुटपाथ पर अपनी ही जैसी एक तस्वीर दिखेगी, लेकिन मैली! तब शायद हम उस मैली तस्वीर के बारे में कुछ इस तरह बता पाएंगे-
“देखो यह बस फुटपाथ नहीं यह तो आशियां है उन नौनिहालों के; हाथ में केतली, पेट में भूख लिए जो हिस्सेदार हैं कल के भारत वर्ष के;
वंदे मातरम…।”
केवल दिल्ली की सड़कों पर 70 हज़ार बच्चे फुटपाथ पर जीते हैं। इस परिदृश्य में गुलज़ार की यह कविता कितनी सटीक लगती है, कविता का शीर्षक है “हिन्दुस्तान उम्मीद से हैं” कविता का पहला पैराग्राफ है-
“हिन्दुस्तान में दो-दो हिन्दुस्तान दिखाई देते हैं।
एक है जिसका सर नवें बादल में है, दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है।
एक है जो सतरंगी थाम के उठता है, दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है।
फिरका-परस्ती, तौहम परस्ती और गरीबी रेखा, एक है दौड़ लगाने को तैयार खड़ा है।
‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तैयार खड़ा है।”
क्या आपने कभी इन दो हिन्दुस्तान को महसूस किया है? कभी मेट्रो से निकलते समय देखा है क्या? आप फोन पर बिज़ी हैं और आपके आगे-पीछे कोई घूम रहा है। आपके साथ कभी ऐसा हुआ है क्या? जब आप अपने दोस्त के साथ बात करने में बिज़ी हैं और वो आपके शरीर को हिलाकर इशारों में कुछ देने लिए के लिए बोल रहे हैं। कभी ऐसा हुआ है क्या? जब आप मोमोज़, भेलपुरी या चाट खा रहे हो, आइसक्रीम खा रहे हो तो कोई आपसे देने की ज़िद कर रहा हो। कभी ऐसा हुआ है क्या? जब तपती गर्मी में आप ठंडा पी रहे हो तो कोई पिला देने की ज़िद कर रहा या कर रही हो।
कभी ऐसा हुआ है क्या? जब आप रेडलाइट पर अपनी कार में बैठे हो और कोई आपकी कार के आधे खुले शीशे से पैन, कॉपी या कोई खिलौना खरीदने की ज़िद कर रहा हो। या अगर शीशा बंद करके आप गाड़ी के अंदर बैठे हो तो वो खिड़की पर हाथ मारकर आपको अपनी तरफ देखने के लिए कह रहा हो या कह रही हो। कभी ऐसा देखा है क्या? जब आप मेट्रो में घुस रहे हो तो कोई अपना ज़ख्म दिखाकर आपको कुछ देने की ज़िद कर रहा हो और आप अजीब सा चेहरा बनाकर मन में एक संशय लिए हुए पता नहीं क्या सच है, क्या झूठ सोचते हुए आगे बढ़ गए हो।
कभी रेडलाइट की रोशनी में किसी बच्चे को कॉपी-कलम चलाते देखा है क्या? कभी बड़ी-बड़ी सड़कों पर लंबी-लंबी ट्रैफ़िक की कतारों के बीच में किसी को करतब दिखाते हुए देखा है क्या? जब आप अपनी तलब बुझाने किसी चाय की दुकान पर जाते हैं तो उन नन्ही उंगलियों पर गौर किया है क्या? सब देखा है, सबने देखा है। कौन सी नई बात है, हमें तो इसकी आदत है, यह तो रोज़ की बात है… यही तो उस सड़क, उस फुटपाथ की कहानी है जहां से हम रोज़ गुज़रते हैं। कई बार हमें दया आती है तो हम कुछ दे देते हैं और कई बार हम झिड़क देते हैं।
2013 में एक सवाल का जवाब देते हुए महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा था कि सरकार के पास सड़कों पर रहने वाले बच्चों का कोई तय आंकड़ा नहीं है। ना ही सरकार के पास ऐसी कोई प्रक्रिया है जिससे इन बच्चों की गिनती की जा सके। गैर सरकारी संगठन ‘डॉन बॉस्को नैशनल फोरम’ द्वारा ‘यंग एट रिस्क’ के लिए देश के 16 शहरों में 2013 में कराए गए सर्वेक्षण का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि सड़कों पर रहने वाले सबसे ज़्यादा बच्चे महानगरों में हैं।
दिल्ली में इन बच्चों की सबसे ज़्यादा संख्या 69976 है, इसके आलावा मुंबई में इन बच्चों की संख्या 16059, कोलकाता में 8287, चेन्नई में 2374 और बेंगलूरु में 7523 है। इस तरह देखें तो सड़कों पर रह रहे सबसे ज़्यादा बच्चे दिल्ली में और सबसे कम त्रिवेंद्रम में (150) हैं। यहां गौ़र करने वाली बात यह है कि यह आंकड़ा 2013 का है।
लगातार ट्रेन या बस से यात्रा करनी पड़ जाए तो हम सो नहीं पाते, दिक्कत होती है। घर से दूर बाहर का खाना खाने में हमें दिक्कत होती है। ठंड में या बरसात में हम समय पर घर आ जाना चाहते हैं, क्योंकि मौसम की वजह से दिक्कत होती है। दिल्ली की गर्मी में तो हम बाहर रह ही नहीं सकते, बिना कूलर और ए.सी. के सोच नहीं सकते, क्योंकि हमें दिक्कत होती है।
क्या हम बिना ‘छत’ जीवन जीने के बारे में सोच सकते हैं? शाम होते ही चिड़िया भी अपने घोंसले में चली जाती है। अब उनके बारे में सोचिए जो शाम होते ही अपने लिए फुटपाथ ढूंढते हैं।
दिल्ली जैसे महानगरों के दैत्याकार फ्लाइओवर की निचले हिस्से में अपने लिए जगह ढूंढते हैं। हम बिना पते के जीवन जी सकते हैं क्या? हमारा पता होता है, मकान नंबर, ब्लॉक, फ्लोर, पिन इत्यादि-इत्यादि। लेकिन उनका पता क्या है? दिल्ली की नाक कही जाने वाली कनॉट प्लेस का फुटपाथ या विकास का सूचक समझे जाने वाले किसी फ्लाइओवर का निचला हिस्सा। कौन हैं ये बच्चे? महिला एंव बाल विकास मंत्री मेनिका गांधी ने कहा था कि हम इन बच्चों को आधार और बर्थ सर्टिफिकेट से जोड़ रहे हैं, लेकिन युद्धस्तर पर आधी रात को जीएसटी लागू हो सकता है, युद्धस्तर पर नोटबंदी लागू हो सकता है तो युद्धस्तर पर इनके लिए कोई तैयारी क्यूं नहीं होती?
70 साल हो गए, क्या हम और आप इन बच्चों को देखकर ये क्या कह सकते हैं कि ये देश तुम्हारा है! अपनी आत्मा से एक बार सवाल पूछिए कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ये बच्चे कौन हैं? पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कहा था “चलो हम अपना आज कुर्बान करते हैं जिससे हमारे बच्चों को बेहतर कल मिले।” लेकिन हमने तो अपनी ऊर्जा हिन्दू- मुसलमान करने में लगा रखा है। रंगो की राजनीति में लगा रखी है! और जो बच जाता है उसे अपने परिवार के लिए लगा देते हैं! नतीजतन इन बच्चों का कल इनकी अपनी किस्मत के भरोसे हैं। इन सितारों को खोने से बचाइए, सब मिलकर आगे आइए।
“आ… देखो रातों के सीने पे ये तो, झिलमिल किसी लौ से उगे हैं, खो ना जाएं ये… तारे ज़मीन पर!”
The post कौन हैं ये बच्चे जो फ्लाईओवर के नीचे रहते हैं और फुटपाथ पर सोते हैं appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.