उसका नाम अजय है, उसकी उम्र 8 साल है। उससे मेरी मुलाकात 5 फ़रवरी, 2017 की सुबह हुई। वह एक पतले से बिछौने पर ज़मीन से लगभग 25 फुट ऊपर बज्र आसन लगाकर बैठा हुआ था।
शनिवार और इतवार की सुबह मंजू और मैं स्वस्थ रहने का सपना पाले लम्बी पैदल यात्रा पर निकल जाते हैं। उस दिन हमारे साथ मेरी भतीजी शीनू भी तैयार हो गयी। हम तीनों 7 बजे घर से निकल पड़े। पहले हमने सोचा कि हम पटेल चेस्ट से ISBT के पास यमुना के किनारे-किनारे टहलेंगे। लेकिन शीनू के साथ होने के कारण हमने तय किया कि हम मजनू का टीला स्थित गुरूद्वारे के पास से यमुना देखकर लौट आएंगे। सो हम मजनू का टीला स्थित गुरूद्वारे से नीचे उतरकर कुछ देर यमुना के किनारे-किनारे टहलते रहे।
8 बजे हमने लौटना तय किया। शीनू के कहने पर हमने गुरूद्वारे से तीन दोने प्रसाद के लिए और उसका मज़ा लेने लगे। किस रास्ते से लौटा जाए इस सवाल पर विचार होने लगा। मेरा मन था कि वहां से यमुना के किनारे-किनारे ISBT होते हुए घर पहुंचे। लेकिन शीनू ने अपनी थकान का हवाला देकर हमें छोटा रास्ता लेने को कहा। थोड़ा विचार करने पर यह तय हुआ कि मजनू का टीला में स्थित तिब्बत के निवासियों की कॉलोनी के सामने से होते हुए नेहरू विहार के मोड़ तक चलेंगे और वहां से बस या किसी और साधन से घर पहुंचा जाएगा।
हम वज़ीराबाद की ओर से आने वाली सड़क के फुटपाथ पर चलते हुए नेहरू विहार की ओर चलने लगे। कुछ ही दूरी पर एक फुटओवर ब्रिज की मदद से सड़क पार करने के लिए उस पर चढ़े। इस ब्रिज की सीढ़ियों पर भारतीय राष्ट्र के कई नागरिक भीख मांगने के लिए बैठे थे। उनमें से दो भिखारी आपस में इस बात के लिए बहस में उलझे हुए थे कि ‘इस’ सीढ़ी पर कौन बैठता आया है। इसी बीच हम तीनों ओवरब्रिज के ऊपर पहुंच गए। यहीं पर हमारी अजय से मुलाकात हुई।
वह अपने बिछौने के एक सिरे पर खुद बैठा था और उसके दूसरे सिरे पर उसकी वज़न तौलने वाली मशीन रखी हुई थी। उसे देखकर हमने अपना-अपना वज़न तौलने की सोची। हम तीनों ने वज़न तौला और उसे 15 रूपये दिए। पैसे देते हुए मैंने उससे पूछा “बेटा, क्या तुम स्कूल जाते हो?” उसने उत्तर दिया “नहीं”। मैंने सवाल यह सोचकर किया था कि शायद इतवार होने की वजह से वह आज इस काम के लिए बैठा हो। मैंने फिर पूछा-
तुम्हारी उम्र कितनी है?
आठ साल।
तुम कहां रहते हो?
खजूरी।
वहां से कैसे आते हो?
बस से।
क्या तुम अकेले आते हो?
नहीं, माँ भी आती है।
वह कहां हैं?
नीचे भीख मांग रही है।
इस दौरान मेरे भीतर कुछ अजीब सा घटने लगा। मैं उसकी ठीक-ठीक पहचान तो नहीं कर सका, लेकिन उसने मेरी आँखों में नमी पैदा कर दी। मैंने फिर पूछा-
क्या तुम रोज़ आते हो?
हां।
कितने बजे आ जाते हो?
सुबह-सुबह।
यहां से जाओगे कब?
जब रात हो जाएगी।
क्या तुमने कुछ खाया है?
हां।
क्या तुम दिन के लिए खाना लाए हो?
नहीं।
तो फिर दिन में खाना कहां खाओगे?
रात को खाऊंगा।
अब तुम सिर्फ रात को खाओगे?
हां।
क्या तुम्हारे पास पानी है?
नहीं।
तो पानी कहां से पीते हो?
नहीं पीता।
अब मेरे भीतर पैदा हुआ ये अजीब सा एहसास कुछ और बढ़ गया। मैंने पूछा-
और कौन हैं तुम्हारे घर में?
पापा हैं और बड़ा भाई है।
पापा क्या करते हैं?
बूट-पॉलिश करते हैं।
कहां?
वहीं खजूरी में।
और भाई क्या करता है?
वो भी बूट-पॉलिश करता है।
उससे बिछड़ने से पहले उसकी अनुमति से शीनू ने उसकी एक तस्वीर खींची। मैं भारी क़दमों से ओवरब्रिज की सीढ़ियों से उतरने लगा। मेरा मन हुआ कि मैं ज़ोर-ज़ोर से भारत माता की जय और भारतीय संस्कृति की जय के नारे लगाऊं। ताकि उनके शोर के तले मेरे मन के ये भाव भयभीत होकर मुंह छुपा लें।
शायद ऐसे ही पलों के लिए ग़ालिब ने कहा था कि:
“रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है”
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