एक वक्त था जब पीरियड्स पर बात करने पर आपको बेशर्म होने के तमगे से नवाज़ दिया जाता था। लेकिन, आज लड़कियों/महिलाओं ने इस बेशर्मी को खुलकर स्वीकारा है। वे खुलकर बात कर रहीं, लिख रहीं, अपनी आवाज़ उठा रही हैं।
बावजूद इसके इन जागरूक लड़कियों और महिलाओं में भी पीरियड्स स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता की कमी देखने को मिलती है, जिसका खामियाज़ा उन्हें कई इन्फेक्शन या किसी अन्य बीमारियों के रूप में चुकाना पड़ता है।
या फिर कई बार हम जागरूक होने के बावजूद सुविधाओं की कमी की वजह से हाइजीन से संबंधित बातों को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं।
ऐसा मेरे साथ भी कई बार हुआ है। जिसका एक उदाहरण है न्यूज़ रिपोर्टिंग के दौरान फील्ड में काम के लिए दिन भर एक ही पैड लगाकर घूमना। रिपोर्टिंग के दौरान अकसर सुबह घर से निकलने के बाद रात को ही वापस आना होता था। इस दौरान पब्लिक शौचालय मिलना काफी मुश्किल था, और अगर मिला भी तो साफ-सफाई के पैमाने पर तो बिलकुल भी खड़ा नहीं उतरता था। खासकर, ग्रामीण इलाकों में रिपोर्टिंग के दौरान शौचालय मिलना काफी मुश्किल हो जाता था। इस वजह से पीरियड्स के दौरान कई बार मुझे एक ही पैड लगाकर दिन भर घूमना पड़ता था।
यहां तक कि पीरियड्स के दूसरे और तीसरे दिन जब फ्लो सबसे ज़्यादा होता है उस दौरान भी मुझे एक ही पैड लगाकर दिन-भर घूमना पड़ा है। मुझे पता होता था कि मेरा पैड खून से भर चुका है, लेकिन मुझे कोई ऐसी जगह नहीं मिलती थी जहां मैं अपना पैड बदल सकूं। गीले पैड लगाकर घूमने से कई बार स्कीन में खुजली और रैशेज की समस्या का भी सामना करना पड़ता था।
डॉक्टरों की सलाह के अनुसार हर 6 से 8 घंटे में पैड और कपड़ों को बदल लेना चाहिए। ऐसा ना करने पर स्कीन में बैक्टीरियल या फंगल इनफेक्श का खतरा बना रहता है। शुरुआत में उस इलाके में खुजली की समस्या होती है, जो धीरे-धीरे स्कीन इन्फेक्शन का कारण बन सकता है।
शौचालय की समस्या सिर्फ मैंने फील्ड में ही नहीं झेली है। बल्कि एक ऑफिस में काम करते हुए भी मुझे इस समस्या का सामना करना पड़ा है। हालांकि वहां मैं खुद की भी गलती मानती हूं। क्योंकि उस ऑफिस में वॉशरूम तो ज़रूर था, लेकिन डस्टबिन नहीं होने की वजह से पीरियड्स के दौरान मुझे पास के एक मार्केट के वॉशरूम का इस्तेमाल करना पड़ता था। जो कम-से-कम ऑफिस से 1 किमी की दूरी पर था अब बात रही मेरी गलती कि तो मेरी गलती यह थी कि मैंने डस्टबीन के लिए खुलकर कभी बात नहीं की। मैं उस ऑफिस में अकेली महिला स्टाफ थी इसलिए मेरा बेझिझक होकर बात करना बहुत ज़रूरी था।
उन दिनों मैं इरेग्युलर पीरियड्स की समस्या से भी गुज़र रही थी। मुझे याद है कि उस बार मुझे तकरीबन 4 महीने के बाद पीरियड आया था। और उससे पहले वाला पीरियड तकरीबन 40 दिनों तक लगातार चला था। इस वजह से मेरा शरीर काफी कमज़ोर हो चुका था। उस वक्त मेरा फ्लो भी काफी ज़्यादा था और मुझे दर्द भी काफी हो रहा था। मैं उस भयावह दर्द में ना सिर्फ ऑफिस का काम कर रही थीं बल्कि बार-बार उतनी दूर चलकर पैड चेंज करने के लिए भी मुझे जाना पड़ रहा था। जबकि उस वक्त सीट से उठना भी मेरे लिए किसी सज़ा से कम नहीं था। फ्लो ज़्यादा होनी की वजह से मुझे हर दूसरे घंटे पैड चेंज करने के लिए जाना पड़ रहा था। मार्केट का वॉशरूम भी काफी गंदा था। जिसकी वजह से मुझे इन्फेक्शन का भी खतरा बना रहता था।
मैं अपने इस अनुभव को सिर्फ इसलिए शेयर कर रही हूं ताकि आप मेरी जैसी गलती नहीं करें। सिर्फ महिला ही नहीं पुरुष भी अगर पीरियड्स पर खुलकर बात करेंगे तो किसी को पीरियड्स से जुड़ी ऐसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा।
किसी आपदा के समय शायद ही किसी का ध्यान इस ओर जाता होगा कि जो महिलाएं पीरियड्स में हैं उन्हें कपड़े या नैपकिन कैसे मिल रहे होंगे। बीबीसी की पत्रकार सीटू तिवारी बताती हैं कि एक वर्कशाप में जब मुझसे यह पूछा गया कि बाढ़ की स्थिति में वह क्या कवर करेंगी तो उनका जवाब था कि मैं उस वक्त पीरियड हुई महिलाओं की स्टोरी कवर करूंगी। उन महिलाओं को पैड या कपड़ा मिल रहा है या नहीं, अगर कपड़ा इस्तेमाल कर रही तो उसे सुखाने का कैसा इंतज़ाम है, वे अपनी साफ-सफाई का कितना ख्याल रख पा रही है।
पीरियड के लिए स्वजागरूकता के साथ ही ज़रूरी है कि हमें ज़रूरी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएं। जिनमें पब्लिक प्लेस और वर्किंग प्लेस में शौचालय और उस शौचालय में डस्टबीन की सुविधा भी शामिल है।
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