हमारे सामाज के लिये माहवारी एक शारीरिक चक्र ना होकर छुआछूत, बीमारी और लड़कियों के लिये अपनी मर्यादा में रहने का संकेत होता है। यहां ना जाना, ऐसे ना बैठना, दाग ना लगे, घर के मार्दों को शक ना हो जैसी नसीहते दी जाती हैं। जबकी ऐसे वक्त में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि आप अपनी बेटी को माहवारी के बारे में जागरूक करें ना कि सौ बंदीशे लगाकर उसका जीना मुश्किल कर दें।
कहने को तो आपको लगता होगा कि यहां किसी पिछड़ी फैमली की बात की जा रही है। लेकिन नहीं, सिर्फ पिछड़ी फैमली नहीं बल्कि अच्छी खासी तालीम याफ्ता घरों का मैंने यह हाल देखा है। माहवारी आते ही लड़की को घर के एक कोने में फेंक देना। तुम यह नहीं कर सकती, तुम बोइयाम (अचार के डिब्बा) के करीब ना जाना वरना तुम्हारी परछाई से अचार खराब हो जायेगा, जैसे जुमले सुनने को मिलते हैं।
अरे जो इंसान खुद दर्द और तकलीफ में मर रहा है उसके साथ ऐसा रवैया? लेकिन ऐसा ही होता है। मुझको आज भी अच्छे से याद है अगर हमारी क्लास से कोई भी लड़की किसी दिन अनुपस्थित होती (वजह कुछ भी हो) तो हम सबको बहुत तंज भरे लहज़े में सुनने को मिलता था कि “तुम सबका एक ही रोना है, बस घर पर पेट पकड़कर बैठ जाया करो, स्कूल आने की क्या ज़रूरत है ?”
क्या ये बातें 14-15 साल की लड़कियों के मनोबल को तोड़ने वाली नहीं है? दर्द चाहे माहवारी का हो या आत्मा पर लगने वाली अमिट चोट का, लेकिन कोई ये बतायेगा कि जिस वजह से संसार में मानव जाति जन्म लेती है, उसी वजह को हमारे समाज ने गन्दगी और छूत का विषय बना लिया है?
और ये बात 14-15 साल की उम्र तक नहीं अब तक चली आ रही है। लोग इस विषय में बात करने से कतराते हैं, और तो और लड़कियों में ये मुद्दा माहवारी का ना होकर ‘वो’ हो जाता है। क्या तुमको ‘वो’ हुआ? ‘वो’ टाइम पर नहीं आया! अरे ‘वो’ कुछ दिन पहले ही तो गया था फिर इतनी जल्दी ?
अब आप में से बहुत से लोगों को यह सब पढ़कर हंसी आ रही होगी या आप में से बहुत सारे लोग यह सोचने रहे होंगे कि अब तो टाइम एडवांस होने का है। अब तो लोग इसे खुलेआम पीरियड्स कहकर ही मुखातिब करते होंगे। तो जनाब आपको ज़रा ये सोचने पर मजबूर कर दूं कि ऐसा कुछ नहीं है। ‘पीरियड्स’ वाले टॉपिक पर अपनी बेसिक रिर्सच में तो मुझे ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला।
अब कोई मुझको ये बतायेगा कि छींटाकशी करते हुए भी यह एक व्यक्तिगत फलीता रहता है ? या जब कोई लड़की किसी मेडिकल स्टोर पर पैड लेने जाती है और उसे बिना मतलब के शर्मिंदगी महसूस कराई जाती है तब भी यह एक व्यक्तिगत मसला रहता है ? नहीं कतई नहीं, मेडिकल स्टोर पर जाने वाली हर लड़की पर उस दुकान के पास या उस दुकान पर बैठने वाला व्यक्ति कम या ज़्यादा बदतमीज़ी तो कर ही लेता है और काली पन्नी या अखबार में लिपटा पैड का पैक, चरस गांजे की तरस्करी सा डर भी देता है। “भईया सही से पैक कर देना, कोई देख ना ले” और देख ले तो मारे शर्म के गड़ जाना।
क्या है यह सब? कौन सा और कैसा समाज है जो कि सब जानते बूझते हुए भी मौन है ? बातें बहुत बेसिक है, लेकिन मेरी कही गयी बातों को सोचिए और नोट भी करते जाइये।
The post पैड खरीदते हुए चरस-गांजे की तस्करी करने जैसी फीलिंग क्यों देता है यह समाज appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.