अभी हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में 11 मैनुअल स्कैवेंजर्स की मौत की खबरें सामने आईं जहां तमाम राजनैतिक दलों के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ, जो मीडिया के लिए बहस का एक मुद्दा बन गया। मसला यह है कि इस देश के न्यूज़ डिबेट्स में मैनुअल स्कैवेंजर्स की खबरों के लिए कोई जगह ही नहीं है। जब तक किसी मैनुअल स्कैवेंजर की मौत नहीं होती तब तक यह बहस का मुद्दा नहीं बनता और इन सब के बीच महिला मैनुअल स्कैवेंजर की तो बात ही नहीं होती।
आधिकारिक तौर उन महिलाओं का ज़िक्र नहीं होता है जो हिन्दुस्तान के अलग-अलग ग्रामीण इलाकों में चेहरे पर मायूसी और माथे में एक डलिया लिए मैला ढोने का काम करती हैं।
यूं तो देश में मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की दिशा में पहला कानून साल 1993 में आया, इसके बाद साल 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून बनाया गया। इस कानून के मुताबिक नाले-नालियों और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए लोगों की सेवाएं लेने पर प्रतिबंध है। बावजूद इसके कई इलाकों में यह काम धड़ल्ले से चल रहा है।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले के मोहम्मदी ब्लॉक के मगरेना गाँव में आज भी महिलाएं मैला ढोने का काम करती हैं। मामले की तह तक जाने के लिए हमनें मगरेना गाँव की पूनम से बात की जिन्होंने हमें बताया कि किन-किन परिस्थियों से गुज़रकर इन्हें यह काम करना पड़ता है।
पूनम का कहना है कि हमें शौक नहीं है कि हम यह गंदा काम करें लेकिन हमारी आर्थिक स्थिति बेहद खराब होने की वजह से हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है।
मैला ढोना तो छोड़ दूं पर क्या चौका-बर्तन के काम पर मुझे रखेंगे?
पूनम कहती हैं, “ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ हम ही मैला ढोने का काम करते हैं बल्कि हमारी कई पीढ़ियां इस काम को करती आई हैं। हमलोग गाँव के लोगों के घर से लैट्रिन उठाकर अपने माथे पर लेकर फेंकने जाते हैं, एक तरह से समझिए कि जो काम वे नहीं कर सकते हैं, उन्हें हम करते हैं क्योंकि हमें पेट पालने के लिए यह करना ज़रूरी है। मुझे दु:ख तब होती है जब गाँव के लोग हमारे साथ जाति के आधार पर भेद-भाव करते हैं। हमारे हाथ से दी हुई चीज़ें वे नहीं खाना चाहते, क्योंकि उनका टॉयलेट जो हम साफ करते हैं। इन चीज़ों से दिल को बहुत ठेस पहुंचती है।”

पूनम ने हमसे बात करते हुए आगे बताया कि लोग कहते हैं, मैला ढोने का काम गंदा है, छोड़ दो। हम उनसे पूछना चाहते हैं कि तुम्हारे घर पर चौका-बर्तन के काम में रखोगे? वे हमें काम पर रख ही नहीं सकते हैं। हमारी छवि ही ऐसी बनाई गई है कि लोग हमें इसी रूप में देखने के आदि हो चुके हैं।
चार बच्चों की माँ पूनम के हालात उस वक्त से और भी खराब हो गए हैं जब से सरकार द्वारा उनके गाँव में औसत टॉयलेट बनवा दिए गए हैं। पहले जहां 15 महिलाएं काम करती थीं, अब महज़ 6-7 महिलाएं ही इस काम में लगी हैं।
नौकरी मिलने की आस
समाज के लोगों द्वारा भेदभाव झेलने वाली पूनम को अब भी सरकारी नौकरी मिलने की आस है। उन्हें लगता है कि अगर सरकार उनके लिए कुछ करे तब वाकई में ज़िन्दगी बदल सकती है। वो कहती हैं कि हम तो मजबूरी में ही यह काम करते हैं, अगर हमें नौकरी मिलती है तब हम यह काम छोड़ देंगे।
पूनम के मुताबिक मगरेना में पहले तीस घरों में मैला ढोने का काम होता था लेकिन अब केवल 15 ही घर बचे हैं जहां यह काम चल रहा है।
सरोजनी के लिए हालात और भी मुश्किल
मगरेना गाँव में कुल 7 महिलाएं मैला ढोने का काम करती हैं जिनमें से हमने दो महिलाओं से बात की। सरोजनी बताती हैं कि पहले के मुकाबले अब काम काफी कम हो गया है। सबसे बड़ी बात कि मैला ढोने के लिए हमें कोई पैसे नहीं मिलते हैं। एक परिवार से 6 महीने में 10 किलो लैट्रिन फेंकने पर अन्न-अनाज मिलते हैं।
बकौल सरोजनी, “इस गंदे काम को करने का हमारा बिल्कुल भी मन नहीं होता है लेकिन क्या करेंगे मजबूरी चीज़ ही ऐसी है। हमारे चार बच्चें हैं, एक लड़की और तीन लल्ला (लड़का)। हमारे पास इतना भी पैसा नहीं हो पाता है कि तीनों शाम भर पेट भोजन करें। मैं तो बच्चों को शिक्षा भी नहीं दे पाती हूं।”

मुझे ना तो सरकार की ओर से टॉयलेट दी गई है और ना ही प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत रहने के लिए घर। बच्चे ना तो अच्छे कपड़े पहन पाते हैं और ना ही उम्र के हिसाब से उन्हें अच्छी खान-पान मिलती है। घर पर कई दफा कभी बच्चों को तो कभी पति की तबियत खराब होती है और इस चक्कर में हमारी काफी ज़मीनें बिक गईं। समाज के जिन लोगों के यहां हम लैट्रिन फेंकने का काम करते हैं वही लोग हमसे भेदभाव करते हैं।
आपको बता दें एक अंतर-मंत्रालयी कार्यबल (इंटर-मिनिस्टीरियल टास्क फोर्स) द्वारा देश के 12 राज्यों में कराए गए सर्वे में पाया गया कि अब भी 53,236 लोग (महिला और पुरुष) मैला ढोने का काम करते हैं। साल 2017 में यह आंकड़ा 13,000 था। अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां 28,796 मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्यां दर्ज की गई है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक इस देश के ग्रमीण और शहरी इलाकों के घरों व सामुदायिक स्थानों में 95 फीसदी दलित महिलाएं मैला ढोने का काम करती हैं।
ऐसे में कई बड़े सवालिया निशान हैं जो सरकार की कार्यशैली पर खड़े होते दिखाई पड़ रहे हैं। मगरेना में जब महिलाओं के डलिये (मैला ढोने वाली वस्तु) को जला दिया गया तब उनका पुनर्वास क्यों नहीं हुआ? उनकी ज़िन्दगी बदल सके इसके लिए कोई पहल क्यों नहीं की गई? यदि वाकई में ऐसा कुछ हुआ होता तब बातचीत के दौरान पूनम और सरोजनी की आंखें नम ना हुई होती।
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