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घरेलू कामगारों को नीचा समझना कब बंद करेंगे हम?

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पिछले साल नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई फिल्म “लस्ट स्टोरीज़” के दूसरे चैप्टर में ज़ोया अख्तर ने एक कामवाली बाई का किस्सा दिखाया। गिनती के संवाद के माध्यम से एक कामवाली बाई की ज़िन्दगी की दास्तान को दिखाने की कोशिश की गई। कामवाली बाई के साथ क्लास डिफरेंस को दिखाने वाली कहानी, घरेलू कामगार महिलाओं की कई दास्तानों को बताने की कोशिश करती है। बहुत पहले “मानसून वेंडिग” फिल्म में कामवाली बाई की महत्वाकांक्षा को दिखाने की कोशिश की गई थी। इससे पहले घरेलू कामगार महिलाएं बस डाक्यमेंट्री का हिस्सा रहीं या उनके हकों के लिए काम करने वाली संगठनों का।

हमारे रोज़मर्रे के जीवन में आस-पास वह महिला ज़रूर होती है जो अदृश्य होती है, हमारे घरों में एकदम अचानक से आती हैं झांड़ू-पोछा करती हैं, कपड़े धोती हैं, खाना बनाती हैं, बच्चे-बूढ़ों को भी देखती हैं। पर वह हमारे जीवन में होते हुए भी इसतरह से गायब है कि हम उनके बारे में ना के बराबर ही जानते हैं। हम नहीं जानते कि वे शहरों में कहां से आई हैं, कहां रहती हैं, वे और कितने घरों में काम करती हैं कितना कमाती हैं और कैसा जीवन जीती हैं!

वास्तव में घरेलू काम निजी दायरे का वह हिस्सा है जिसको कार्य मानने का चलन ही नहीं रहा है। निजी दायरे में क्या-क्या घरेलू कार्य हैं इसकी तयशुदा परिभाषा या पहचान करने की कोशिश पहली बार 1974 में समानता की ओर (Towards Equality) की ऐतिहासिक रिपोर्ट में की गई। रिपोर्ट ने पहचाना कि घरेलू कार्य वह कार्य है जो निजी दायरे में हमेशा होता है पर ना तो कोई प्रतिफल मिलता है ना कोई पहचान। इस रिपोर्ट के प्रस्तुति के बाद महिलाओं के कृषि आधारित कार्य और गृह आधारित घरेलू कुटीर उधोग के श्रम की पहचान हुई। परंतु, यह रिपोर्ट महिलाओं के घरेलू गृह कार्य, जाति आधारित श्रम और घरेलू कामगार के श्रम की पहचान नहीं कर सकी।

घरेलू कामगार वह वर्ग है जो मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय घरों में तमाम प्रकार के काम करते है। इसमें महिलाओं का एक अलग वर्ग है जिनका कार्य कठिन हुआ करता है। घरों में तमाम तरह की सफाई के साथ-साथ खाना बनाना और बच्चे-बूढ़ो का देखभाल भी इनके ज़िम्मे आता है। इनकी कार्य अवधि सामान्यतं: 15 से 17 घंटे रोज़ाना की होती है। न्यूनतम मजदूरी की बात तो दूर, इन्हें अपने आप को भी संभालने का मौका नहीं मिलता है। छुट्टी का भी अभाव होता है कभी-कभी बीमार होने पर भी उनको काम करना पड़ता है। इसके साथ-साथ हमेशा अपने आप को असुरक्षित ही महसूस करते है क्योंकि काम से हटाए जाने का संकट हमेशा बना रहता है।

यौन शोषण और हिंसा का शिकार होने का भय भी हमेशा बना रहता है, इसके साथ-साथ चोरी करने के दोषारोपन का भय हमेशा उनके ऊपर बना ही रहता है। आमतौर पर इनके कार्य को अनुत्पादक या गैर-उत्पादक क्षेत्र माना जाता है। इस वर्ग में महिलाएँ, लड़कियाँ और कम उम्र के बच्चे-बच्चियाँ भी शामिल है, हालांकि बच्चे-बच्चियो को किसी भी श्रम का हिस्सा बनाना कानूनी अपराध है।

मौजूदा दौर में कामकाजी महिलाओं को “सुपर वुमेन” इ्सलिए कहा जाता है क्योंकि कामकाजी महिलाएं घर-दफ्तर और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बी़च में बेहतर तालमेल बना लेती हैं। गौर करनेवाली बात यह है कि इन “सुपर वुमेन” के पीछे मौन कामगर वर्ग है जिनके बगैर कुछ पेशेवर महिलाएं ही अपना काम पूरा कर पाती है।

देश में कितने ही घरों में घरेलू नौकर, आया, कामवाली, दाई या बाई वह नाम है जिनकी अनदेखी हमेशा होती है। उनके काम को कम आंका जाता है और उनको दूसरे श्रमिकों को मिलने वाले अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। क्या यह सिर्फ इसलिए क्योंकि कामगार महिला ही नहीं, घरेलू महिलाएं जिनको प्रचलित शब्दावली में “हाउस वाईफ” कहा जाता है उनके घरेलू श्रम का कोई मूल्यांकन नहीं किया जाता है या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उनके कार्य को योगदान के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।

यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे शहरी और महानगरीय जीवन में कमोबेश सबका वास्ता पड़ता है परंतु कोई सुखद या दुखद घटनाक्रम ही घरेलू कामगारों के बारे में सोचने को विवश करता है। कुछ राज्यों में घरेलू कामगार या बाल श्रमिकों के हक के लिए कामगार कल्याण बोर्ड काम करता है जो गुमनाम घरेलू कामगारों के अधिकारों को मान्यता देता है। राष्ट्रीय घरेलू कामगार अभियान जैसे संगठनों ने घरेलू कामगारों को बतौर श्रमिक मान्यता दिलाने के लिए काम भी किया है। मसलन, आंघ्रप्रदेश और कर्नाटक में घरेलू कामगारों को न्यूनतम वेतन देने के लिए कानूनी प्रावधान है। तमिलनाडु में घरेलू काम को शारीरिक श्रम कानून में शामिल किया है। परंतु, इसका लाभ घरेलू कामगार श्रमिकों को कितना मिल रहा है इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

भारतीय मानसिकता के तहत श्रम को दो खेमों में बांटकर देखने की प्रवृत्ति रही है मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम। मानसिक श्रम को हमेशा ऊंचा दर्जा मिलता है इसे समाज ने बुनियादी एवं समाज को बनाए रखने और बरकरार रखने वाले श्रम के रूप में माना है। इसके विपरीत शारीरिक श्रम को नीच और घृणा के नज़रिए से देखा गया जिसका परिणाम यह हुआ कि शारीरिक श्रमिकों को कम से कम मज़दूरी देने की प्रथा चली जो कानून के तहत भी लागू हुई।

इस दिशा में कानून का प्रभावी होना ज़रूरी है पर कानून के प्रभावी होने के लिए यह भी ज़रूरी है कि उन्हें काम पर रखने वालों के व्यवहार में भी परिवर्तन हो। इस दिशा में वेतनमान संबंधी कानून उनके लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। साथ ही साथ घरेलू कामगारों का पंजीयन भी होना चाहिए, पंजीयन के लिए घरेलू कामगारों को प्रोत्साहित करना भी ज़रूरी है ताकि पंजीकृत कामगारों के अधिकारों को कानूनी दायरे में लाया जा सके। क्या घरेलू कामगार करने वालों को पता है कि उनके लिए तय वेतनमान कितना हैं? वह यह जानने की चिंता भी नहीं करते हैं। सवाल यह भी है कि कोई अगर न्यूनतम वेतन देने से इंकार करता है तो उसे सज़ा कैसे होगी?

अब तक हमारे देश में श्रमिक मांग से ज़्यादा उपलब्ध है, ऐसी स्थिति में क्या किसी घरेलू कामगार में इतनी ताकत है कि वह काम से इंकार कर सके? अर्थव्यवस्था और विकास नीतियों में हर रोज़ होने वाले बदलाव से बड़ी संख्या में मज़दूरों को घरेलू काम की तरफ धकेला जा रहा है। व्यक्तिगत परिवार के बढ़ोतरी के कारण भी घरेलू कामगार की मांग बढ़ रही है। पर क्या इन वजहों से उनका वेतन बढ़ रहा है। घरेलू कामगार के कल्याण के लिए इन सवालों के जवाब तलाशना अधिक ज़रूरी है।

जब तक घरेलू कामगार वर्ग के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं बन पाता है। तब तक घरेलू कामगार की स्थितियों में बदलाव लाने के लिए यह ज़रूरी है कि मालिक इन्हें नौकर ना समझकर सहयोगी कर्मचारी समझे। घरेलू कामगार के रूप में काम करने वाले लोगों का पंजीयन सरकारी संस्थाओं के माध्यम से हो और कोई व्यवस्था विकसित किया जाए। इसमें उचित कार्यदशाओं के साथ-साथ वेतन और अन्य सुविधाओं का लाभ उनको मिले। इन सब चीज़ों की जानकारी घरेलू कामगारों, नियोक्ता और काम पर रखने वालों को भी हो।

काम पर रखने वाले ये भी समझें कि औरों की तरह उनके भी अधिकार हैं जो उनको मिलना ही चाहिए जो अब तक उनको मिले ही नहीं। इसके साथ-साथ घरेलू कामगारों के अस्तित्व, अस्मिता एंव पहचान को जानने समझने की भी ज़रूरत है। घरेलू कामगार वर्ग हमारे देश का वह वर्ग है जो अपने तमाम जज़्बात पर पानी डालकर मध्यवर्ग या उच्चवर्गीय जीवन को सहज़ बनाने में अपनी भूमिका निभाए चला जा रहा है, सिर्फ अपनी हल्की-फुल्की समस्याओं को बताकर।

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