मैला ढोना दुनिया में कहीं भी अमानवीय और छुआछूत की सबसे ज़्यादा अपमानजनक जीवित कुप्रथा है, किंतु हास्यापद है कि भारत में इसे मानवीय गरिमा की बजाय सफाई के मुद्दे से जोड़कर देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। मुगल काल में यह प्रथा प्रचलित रही। ब्रिटिश काल में भारत में सीवरेज सिस्टम की शुरुआत होने के बावजूद कोलकाता सहित अन्य शहरों में ही यह प्रथा पूर्ववत जारी रही।
महात्मा गांधी सहित कई समाज सुधारकों ने इसका विरोध किया और इससे जुड़े लोगों की स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में कानूनी प्रावधान लागू करने की मांग की। इसके फलस्वरूप कानून भी बने लेकिन बावजूद आज़ादी के छह दशक से ज़्यादा बीत जाने के बाद देश के कई हिस्सों में आज भी यह प्रथा बदस्तूर जारी है।
जनगणना-2011 के अनुसार, भारत में अभी भी 2.6 मिलियन से अधिक शुष्क शौचालय हैं। करीब 13,14,652 शौचालयों की गंदगी का निस्तारण खुले नालों में किया जाता है और 7,94,390 शुष्क शौचालयों से निकलने वाली गंदगी को हाथों से साफ करना पड़ता है। ऐसे 73% शौचालय ग्रामीण क्षेत्रों में जबकि 27% शौचालय शहरी क्षेत्रों में आज भी मौजूद हैं।
यही कारण है कि 21वीं सदी में भी देश के हज़ारों परिवार सामाजिक तौर पर इस अमानवीय कार्य को करने और दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं। आज भी लोग इन्हें अछूत मानते हैं, यह एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जीवन भर समाज के इस हिस्से के काम करने और उसके जीने की स्थितियों में सुधार के लिए संघर्ष करते रहें। उसकी खोई गरिमा को वापस दिलाना गांधी जी के प्राथमिक एजेंडे में शामिल था।
मैला ढोने के काम से ज़्यादातर महिलाएं ही जुड़ी हैं
यूएनडीपी- 2012 की रिपोर्ट (सोशल इंक्लुजन ऑफ मैनुअल स्केवेंजिंग; पेज-10; 3.2) के अनुसार, मैला ढोने के काम से ज़्यादातर महिलाएं ही जुड़ी हैं, जिन्हें पुरुषों की तुलना में ज़्यादा भेदभाव सहना पड़ता है और उन्हें कोई दूसरा काम करने भी नहीं दिया जाता।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा देश के 13 राज्यों में हाथ से मैला ढोने वाले सफाईकर्मियों को लेकर कराये गये एक सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, इन राज्यों में अभी भी 11,044 महिला सफाईकर्मी पायी गयीं। इनमें से 94 फीसदी यानी करीब 10,449 महिलाएं केवल यूपी में पायी गयीं। बाकी महिला सफाईकर्मी आंध्र प्रदेश, आसाम, बिहार, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तराखंड और पश्चिमी बंगाल में पायी गयीं।
इन आंकड़ों की मानें, तो इन 11 राज्यों में मौजूदा कुल सफाईकर्मियों में से महिला सफाईकर्मियों की संख्या ही 80.97 फीसदी हैं। हालांकि ये आंकड़ें वास्तविक तस्वीर पेश नहीं करते, क्योंकि इनमें 16 राज्यों और 7 संघ शासित क्षेत्र शामिल नहीं हैं। ऐसे में आप अनुमान लगा सकते हैं कि महिला सफाईकर्मियों की संख्या कितनी अधिक हो सकती है।
अ ह्यूमैन राइट्स वॉच नामक एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा प्रस्तुत किये गये एक शोधपत्र में यह बताया कि अधिकतर मैला ढोने वाले काम में महिलाओं को वरीयता दी जाती है। कारण, ज़्यादातर घरों के भीतर शौचायल होता है, जहां पुरुषों को जाने की मनाही होती है। जबकि महिलाओं को आसानी से प्रवेश मिल जाता है। इस काम के बदले में उन्हें मात्र 50-60 रुपये दे दिये जाते हैं। कभी-कभार मालिक ज़्यादा खुश हों, तो रात का बचा खाना भी इन्हें दे देते हैं।
इन महिलाओं की जीवन स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखा जा सकता है-
1. शिक्षा की भूमिका
पिछले वर्ष की शुरुआत में सरकार द्वारा लोकसभा में पेश किये गये बिल में यह बताया गया कि भारत के कुल 11 राज्य एवं संघ शासित प्रदेश पूर्ण रूप से ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त हो गये हैं। एक बात जो गौर करने लायक है, वह यह कि इन राज्यों की साक्षरता दर (जनगणना-2011 के अनुसार) उन राज्यों के मुकाबले बेहतर हैं, जिन्हें फिलहाल ओडीएफ घोषित नहीं किया गया है। ये 11 राज्य और इनकी साक्षरता दर इस प्रकार हैं-
केरल (94.00),
दमन तथा दिउ (87.10),
चंडीगढ (86.05),
छत्तीसगढ़ (86.05),
हिमाचल प्रदेश (82.80),
सिक्किम (81.42),
उत्तराखंड (78.82),
गुजरात (78.03),
हरियाणा (75.55),
मेघालय (74.43) और
अरुणाचल प्रदेश (65.38),
पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री रमेश चंदप्पा ने यह बिल प्रस्तुत करते हुए बताया कि जो राज्य ओडीएफ घोषित किये गये हैं, उनके सामुदायिक व्यवहार में भी काफी बदलाव आया है। उनकी सोच अब पहले से अधिक प्रोग्रेसिव हुई हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। इसका मतलब है कि ऐसे लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने में शिक्षा एक अहम भूमिका निभा सकती है।
2. अधिकारों के प्रति जागरूकता
शुरू से ही हमारे समाज में मैला ढोने वालों को अछूत माना जाता रहा है। उनके साथ हर तरीके का भेदभाव किया जाता रहा है। यही कारण है कि आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी यह तबका समाज की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाया। उनके लिए कानून तो कई बने लेकिन जागरूकता का घोर अभाव होने की वजह से वे कभी भी अपने अधिकारों का समुचित लाभ नहीं उठा पाये। ऐसे में उन्हें संबंधित जानकारियों से लैस करना ही उनके उत्थान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
3. कानूनों की जानकारी
ऐसे लोगों में चूंकि शिक्षा का घोर अभाव है, इसलिए उनके शोषण होने के चांसेज काफी अधिक होते हैं। साथ ही, उनके लिए जो कानून बने हैं, वे या तो हिंदी अथवा अंग्रेज़ी भाष में उपलब्ध हैं। उनका क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद ना होने की वजह से अहिंदी भाषी सफाईकर्मियों के लिए उन्हें समझना और भी कठिन है। सरकार को इस दिशा में भी गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
4. इनकी जनसंख्या और इनके आवास का नियमन किया जाये
ऐसे लोग अधिकतर शहर या गांव के बाहरी हिस्से अथवा किसी गंदी जगह पर रहते हैं। इनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं हेाता। इसके चलते इनके पास वैद्य सरकारी पहचान पत्रों मसलन- वोटर आइडी कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड, बैंक या एलपीजी खाता आदि नहीं होता, जिसके चलते उन्हें सरकारी सुविधाओं का भी समुचित लाभ नहीं मिल पाता है। अत: ज़रूरी है कि इनकी जनसंख्या और इनके आवास का नियमन (regularization) किया जाये, ताकि ये लोग भी देश के नागरिक होने का उचित लाभ उठा पायें।
5. इन महिलाओं को भी एक सम्मानजनक रोज़गार से जोड़ा जाये
देश के विकास दर में महिला श्रम भागीदारी के लिहाज़ से देखें, तो विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत 131 देशों की सूची में 120वें स्थान पर है। भारत की जीडीपी में महिलाओं की भागीदारी फिलहाल 17% है, जबकि चीन में 40% है। आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि महिलाओं की इस भागीदारी को बढ़ाकर 50 फीसदी भी कर दिया जाये, तो देश के विकास दर में 1.5% की बढ़ोतरी हो जायेगी और यह चीन के विकास दर, जो कि वर्तमान में 8% है, से भी आगे निकल जायेगा। उल्लेखनीय है कि विश्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2018-19 में भारत का जीडीपी 7.3% की दर से बढ़ने का अनुमान लगाया है। ज़ाहिर-सी बात है कि अगर इन महिलाओं को भी एक सम्मानजनक रोज़गार से जोड़ दिया जाये, तो वे देश के विकास में अहम योगदान निभा सकती हैं।
6. पुनर्वास के कार्य को बेहतर और सफल बनाया जाए
पिछले कुछ वर्षों से सुलभ इंटरनैशनल जैसी गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर सरकार ने इन महिलाओं के रोज़गार एवं पुनर्वास की दिशा में कार्य करना शुरू किया है, जिसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। सरकार का दावा है कि कुल चिन्हित 11,044 वुमेन स्केनवेंजर्स में से 88 फीसदी (9,798) महिलाओं को पुनर्वास कार्यक्रम से जोड़ दिया गया है। लेकिन गौरतलब है कि ये सरकारी आंकड़ें मात्र 13 राज्यों (आंध्र प्रदेश, आसाम, बिहार, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिमी बंगाल) में किये गये सर्वेक्षण पर आधारित हैं। बाकी 16 राज्यों और 7 संघशासित क्षेत्रों के आंकड़ें सरकार के पास अब तक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में उन राज्यों के आंकड़ें मंगवाकर भी पुनर्वास के इस कार्य को बेहतर और सफल बनाया जा सकता है।
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