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“जिस देश में बच्चे ढाबों में बर्तन मांजते हैं, वहां विकास की बात करना बेवकूफी है”

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यह तो सभी जानते हैं कि कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर होता है और वास्तविकता इनसे कोसों दूर रहती है। यह विचार मेरे मन में उस समय आया जब शिरडी के एक होटल में मैंने एक 10 साल के बच्चे को काम करते हुए देखा।

उस बच्चे ने मुझे पानी दिया, जिसके बदले मैंने उसे “THANKS” कहा। जवाब में उस बच्चे ने अत्यंत प्रेम भाव से मुझे “YOUR MOST WELCOME” कहा।

बच्चे के उन शब्दों को सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई लेकिन उसी समय मन में यह सवाल आया कि आखिरकार वह कौन सी परिस्थितियां और समस्याएं हैं जिनकी वजह से उस बच्चे से पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने का अधिकार छीनकर उसे काम करने की विषम परिस्थितियों में ढकेल दिया गया।

हमारे देश के आज़ाद होने से लेकर अब तक कई राजनीतिक दल सैकड़ों खोखले दावों और वादों के साथ अस्तित्व में आए। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अलग-अलग सरकारें और राजनीतिक दलों ने अपनी स्वार्थसिद्धी में मग्न रहते हैं और उनकी इस मग्नता का हर्ज़ाना उन लाखों-करोड़ों बच्चों को भुगतना पड़ता है, जिन्हें देश का भविष्य माना जाता है।

होटल में काम करते हुए उस बच्चे की मासूमियत ने मेरे मन में यह सवाल उठाया कि वर्तमान सत्ताधारी सरकार की नीतियों में ऐसी कौन सी खामियां हैं जो गरीब बच्चों को उन सभी आधारभूत सुविधाओं से वंचित कर उन्हें अंधकार के गर्त में ढकेल रही हैं।

वर्तमान सरकार की कई नीतियों से हम वाकिफ हैं जिनके तहत यह दावा किया जाता है कि गरीब परिवार के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, शिक्षण सामग्री और छात्रवृत्ति जैसी अनेक सुविधाएं दी जाएंगी।

इसी प्रकार के वादे और नीतियों का निर्माण पिछली सरकारों में भी किया गया था। इनके तहत 2009 के शिक्षा के अधिकार अधिनियम को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त एवं ज़रूरी शिक्षा संबंधी अनेक प्रावधानों का उल्लेख मिलता है।

चाइल्ड लेबर
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो  साभार: pixabay

अंत में यही विचार बार-बार मन में आता है कि अगर इसी तरह से नीतियों के क्रियान्वयन के अभाव में गरीब मासूमों के अच्छे जीवन प्राप्त करने के अधिकार को छीना जाएगा तो निश्चित ही हमारे देश में एक अलग ही तरह की दास परंपरा का उदय होगा।

गरीब बच्चों के नन्हें हाथ होटलों, दुकानों और धनवान घरों के बर्तन मांजते और झाड़ू-पोछा करते हुए एक दिन अपने जीवन और सुनहरे भविष्य को पीछे छोड़ उन जटिलताओं और मुश्किल परिस्थितियों में उलझ जाएंगे जिनसे बाहर निकलना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा।

अगर सरकार को देश में इस तरह की जटिलताओं को बढ़ने से रोकना है, तब योजनाओं के क्रियान्वयन में तेज़ी लाने के साथ-साथ उन सामाजिक वास्तविकताओं को भी समझना होगा जो समाज में असमानताओं को पैदा करती है।

सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जो देश में मौजूद असमानताओं पर आधारित भेदभाव और ऊंच-नीच को खत्म करने के साथ समाज के गरीब तबकों को उनका जीवन स्तर उठाने का अवसर दे सकें।

मोनिका सिन्हा की रिपोर्ट

The post “जिस देश में बच्चे ढाबों में बर्तन मांजते हैं, वहां विकास की बात करना बेवकूफी है” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.


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