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जानिए छत्तीसगढ़ में कैसे धड़ल्ले से चल रहा है चाइल्ड ट्रैफिकिंग का खेल

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जब हम विश्वगुरू बनने की इच्छा और युवा भारत के जुमले पर अभिमान कर रहे होते हैं, तब कोई बच्चा लापता हो रहा होता है। अक्सर छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासी बच्चों को अपहरण कर, बहला-फुसला कर या नौकरी का झांसा देकर महानगरों में बेच दिया जाता है। जहां इन्हें बंधक बनाकर भीख मंगवाने से लेकर बंगलों में नौकर बनने के लिए मजबूर किया जाता है।

इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक याचिका पर छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव और डीजीपी को बच्चों के लापता होने पर सम्मन जारी किया था। यह सम्मन शासन-प्रशासन के अगंभीर रवैय्ये को लेकर था, क्योंकि 10 मई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर बच्चे के गायब होने पर एफआईआर दर्ज़ होनी चाहिए और हर थाने में एक विशेष जुवेनाईल पुलिस अधिकारी हो लेकिन इसका पालन नहीं हो पा रहा था।

इसके अलावा  छत्तीसगढ़ में मानव तस्करी की शिकायतों पर प्रमुख लोकायुक्त शंभूनाथ श्रीवास्तव ने कहा था, “जेलों में बंद कैदी अपने साथियों से मानव तस्करी करा रहे हैं। अधिकांश मामलों में बच्चों से भीख मंगवाने की बात सामने आती है। इसके लिए रेलवे स्टेशन को ठिकाना बनाया गया है लेकिन इसे रोकने में जीआरपी कमज़ोर नज़र आती है।”

नवम्बर 2015 तक के सरकारी आंकड़ो के अनुसार छत्तीसगढ़ में पिछले 5 सालों में कुल 14118 बच्चे गायब हुए हैं, जिनमें अधिकतर बच्चे सरगुजा, बस्तर, जांजगीर-चांपा जैसे पिछड़े इलाकों से हैं लेकिन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से भी 2010 से 2015 तक 2358 बच्चे लापता हुए।

अब इस तर्क को भी नहीं माना जा सकता कि ऐसे अपराधों को सिर्फ पिछड़े क्षेत्रों में अंजाम दिए जाते हैं बल्कि राजधानी में भी बेखौफ होकर बचपन छीना जा रहा है।

फर्ज़ी प्लेसमेंट एंजेसियों का जाल खासकर छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में बेरोक-टोक काम करते हुए देखे जा सकते हैं, जिनके द्वारा नौकरी का झांसा देकर बच्चों को बंधक बनाने का काम किया जाता है। अगस्त 2014 में बस्तर की एक बच्ची को नौकरी दिलाने के नाम पर दिल्ली मे पचास हज़ार में बेच दिया गया था।

नवम्बर 2014 में छत्तीसगढ़ के 10 बच्चों को दिल्ली से छुड़ाया गया, ये सभी बच्चे आदिवासी इलाका जशपुर से थे। फरवरी 2015 में तीन नाबालिग लड़कियों को भी छुड़ाया गया था जिन्हें ‘सेवा भारती’ के बैनर तले नौकरी दिलाने का लालच देकर दिल्ली ले जाया जा रहा था।

लेखक गिरीश पंकज इस मामले पर प्रशासन और समाज दोनों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, “हम अपने बच्चों को लेकर बहुत लापरवाह रहते हैं। नौकरी के भरोसे बच्चे पलते हैं और जो बेहद गरीब हैं वे बच्चों से वैसे भी बेखबर हो जाते हैं, या तो बेच देते हैं या खुद भाग जाते हैं, कुछ का अपहरण हो जाता है।”

इन सब मामलों पर कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि इनके माँ बाप खुद अपने बच्चों को कम उम्र में काम करवाने के लिए बाहर भेजते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी कौन सी  वजह है जो इन बच्चों को विद्यालय के बजाय काम पर भेजने को प्रथमिकता देने के लिए मजबूर करती हैं।

इन बातों से  समझा जा सकता है कि समाज में हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए बच्चों का पेट पालना भी कितना मुश्किल होता है। नतीजतन उनको मजबूर होकर काम पर भेजना पड़ता है, जिसका बेजा इस्तेमाल बच्चों को बंधक बनाने वाले गिरोह करते हैं।

6 मार्च 2014 को राज्य सभा में महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री कृष्णा तीरथ ने एक सवाल के जवाब में जानकारी देते हुए बताया था, “पिछले तीन वर्षों में देश के 2 लाख 36 हज़ार 14 बच्चे लापता हुए जिनमें से 75808 बच्चे अब तक नहीं मिल सके हैं।”

उन्होंने यह भी  बताया कि वर्ष 2009 से लेकर 2011 तक देश में कुल मिलाकर दो लाख 36 हज़ार 14 बच्चे गायब हो गए। उनमें से एक लाख 60 हज़ार 206 बच्चों की तलाश कर ली गई है, जबकि 75808 बच्चे अभी भी लापता हैं।

वरिष्ठ पत्रकार जावेद उस्मानी कहते हैं, “मोटे तौर पर व्यवस्था जनित विकार के छाया तले पली आपराधिक और गैर ज़िम्मेदारी, अर्थ प्रधान मानसिकता और मानवीय मूल्यों का क्षरण नव दासता के बिंब हैं। किसी राज्य से बड़े पैमाने पर बच्चों का गायब होना और हो हुल्ले के बावजूद भी दौर थमने के बजाय जारी रहना शर्मनाक है।”

बहरहाल कानून निर्माण और इसके क्रियान्वयन में सरकार कितनी गंभीर है, यह तो हम देख ही सकते हैं लेकिन सामाजिक अक्षमता से भी हम इंकार नहीं कर सकते जो कि मजबूर बच्चों से पशुवत व्यवहार कर उनकी ज़िदगी के साथ-साथ दुनिया से उसके बचपन छीनने का कुकृत्य कर रहे हैं।

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