खींच धनुष की इक प्रत्यंचा, खेल निराले दिखते हैं; नित कुदरत की प्रकृति पर, अट्टहास इक नया दिखता है। शर्म की पट्टी बंध जाती है, अज्ञानता के चक्षु से लहू जब रिसता दिखता है; दुनिया की मर्दानी तस्वीरों में, रंग लहू का शर्मीला दिखता है। रक्त जब पहली दौड़ लगाए, इक डर अनजाना सा उसकी आंखों में दिखता है; इक खामोशी सी छा जाती है, रक्त जब चुपचाप तन से रिसता है। हर चक्र की शर्म में, फरेब सोच का दिखता है; ढकते...
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