रात के 1 बजकर 23 मिनट हो रहे हैं। ना आंखों में नींद है और ना ही सोने की चाहत। ना जाने कैसी उलझन सी समा गई है ज़ेहन में। शायद पहली बार किसी अपने को इस महामारी से प्रभावित होने के खतरे को महसूस कर पाई हूं! विगत समय में इस महामारी के प्रकोप को अखबारों में पढ़ते एवं अपने आस-पास के लोगों को खुद से दूर होते हुए महसूस कर रही थी। तकलीफ भी होती थी। इंसान से जुड़ी हर एक अच्छी-बुरी बातें, साथ में किए हुए काम...
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