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“बिहार में मानते हैं कि पीरीयड्स के वक्त लड़की खेत गई तो पेड़ पौधे सूख जाएंगे”

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किसी भी देश के विकास में पुरुष और महिलाओं का समान योगदान होता है। लेकिन ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है जब वह देश अपने सभी नागरिकों को समान रूप से बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हो सके। परंतु हमारे देश में आज भी आधी आबादी विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं और किशोरियों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध हो पाती हैं। शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण स्वास्थ्य से जुड़े उनके मुद्दे को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है। जबकि उन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। विशेषकर माहवारी के समय होने वाली उनकी परेशानियों को न केवल नज़रअंदाज़ किया जाता है बल्कि उसपर बात करना आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में पाप समझा जाता है। हालांकि देश में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक की सरकारों द्वारा कई चलाए जा रहे हैं। इनमें आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम और राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसी योजनाएं केंद्र द्वारा संचालित हैं।

बिहार में स्वास्थ्य योजनाएं महिलाओं तक पहुंचती ही नहीं

वहीं बिहार सरकार द्वारा भी मुख्यमंत्री डिजिटल हेल्थ योजना को आरंभ किया गया है। इस योजना के माध्यम से प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाओं को डिजिटल तकनीक के माध्यम से नागरिकों तक पहुंचाया जाएगा। इस योजना को आरंभ करने का निर्णय 29 अप्रैल 2022 को लिया गया। इसके साथ ही केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य योजना प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना की तर्ज़ पर बिहार में मुख्यमंत्री जन आरोग्य योजना शुरू की गई है। इसके तहत बिहार के 89 लाख परिवारों को स्वास्थ्य बीमा का लाभ देने की तैयारी भी चल रही है। इन योजनाओं का उद्देश्य राज्य के नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना एवं समाज में उनकी स्थिति को ठीक करना भी है। इन योजनाओं का लाभ भी बड़े पैमाने पर आम जन को मिल रहा है मगर ग्रामीण क्षेत्रों की आधी आबादी अब भी उस योजना के इंतजार में है जिससे महिलाओं और किशोरियों की स्थिति में बदलाव आ सके। हालांकि ऐसा बदलाव बेहद कम देखने को मिले हैं, क्योंकि जागरूक नहीं होने के कारण स्वास्थ्य सुविधाओं तक उनकी पहुंच भी संभव नहीं हो पा रही है जिस कारण महिलाओं के स्वास्थ्य का आंकड़ा गिरता ही जा रहा है।

इसका एक उदाहरण लीची के लिए प्रसिद्ध बिहार के मुजफ्फरपुर शहर से 40 किमी दूर गोविंदपुर गांव है। आदर्श गांव के रूप में स्थापित होने के बावजूद यहां जागरूकता की कमी है। जिसके कारण माहवारी के समय महिलाएं और किशोरियां हाइजीन का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रख पाती हैं। वह आज भी पारंपरिक रूप से कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं। इस संबंध में 45 वर्षीय गांव की एक महिला मीरा देवी बताती हैं कि

गांव में माहवारी के समय कई अतार्किक परंपराएं निभाई जाती हैं। जिसमें रस्सी के माध्यम से माहवारी के समय का पता लगाना भी शामिल है। इसके अलावा इस दौरान उन्हें बार-बार नहाने के लिए भी बोला जाता है जो कई बार कड़ाके की ठंड में किशोरियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होता है। इसके अतिरिक्त उन्हें खेत में भी नहीं जाने दिया जाता है, क्योंकि लोगों का मानना है कि इससे पेड़ पौधे सूख जाएंगे, साथ ही इस दौरान उन्हें पूजा करने अथवा अचार या सिंदूर छूने की भी इजाज़त नहीं होती है।

ये सिर्फ बिहार की बात नहीं

देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की स्थिति एक जैसी ही होती है, क्योंकि उन्हें माहवारी के समय सारी सुविधाएं नहीं मिलती हैं। जागरूकता की कमी और व्याप्त रूढ़िवादी सोच के कारण इस दौरान महिलाएं और किशोरियां अत्यंत ही दर्दनाक स्थिति से गुजरती हैं। इस संबंध में गांव की एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि उनकी पोती को माहवारी के समय अत्यंत ही पीड़ा होती है, जिस कारण उसे दवाइयां देनी पड़ती हैं। इस दौरान वह स्कूल भी नहीं जाती है क्योंकि वहां पर छुआछूत की भावना होती है। उन्होंने बताया कि केवल उनकी पोती ही नहीं बल्कि माहवारी के दौरान गांव की लगभग सभी लड़कियां सेनेटरी पैड की जगह घर का गंदा कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं, जिसे वे धूप में सुखा भी नहीं सकती हैं।

महावारी को लेकर समाज में जागरूकता की कमी इन्हीं उदाहरणों से देखी जा सकती है कि जहां एक ओर सरकार समय-समय पर बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक कदम उठा रही है ताकि छात्राओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाए एवं कक्षा में उनकी स्थिति को सुधारा जाए, वहीं केवल कपड़े के इस्तेमाल कारण किशोरियां स्कूल से दूर हो जाती हैं। दरअसल, जब तक मूलभूत सुविधाएं ही नदारद रहेंगी उस वक़्त तक कक्षा में लड़कियों की उपस्थिति को सुनिश्चित नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिए जमीनी स्तर पर बदलाव कायम करने की ज़रूरत है ताकि माहवारी के दौरान भी छात्राएं अपनी पढ़ाई से वंचित न रहें। वहीं दूसरी ओर घर में रहने वाली महिलाएं भी माहवारी के समय स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझती रहेंगी। जिसे ज़मीनी स्तर पर हल करने की ज़रूरत है।

इसके लिए सरकार के साथ-साथ समाज को भी जागरूक करने की जरूरत है। माहवारी के दौरान महिलाओं और किशोरियों की स्थिति और उनके दर्द को समझने की भी जरूरत है। इस मुद्दे को स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ने की ज़रूरत है न कि केवल किशोरियों तक सीमित किया जाये। लेकिन साथ ही महिलाओं को भी समझना होगा कि माहवारी श्राप नहीं है बल्कि एक वरदान है। उन्हें इससे जुड़ी अपनी परेशानियों और स्वास्थ्य संबंधित दिक्कतों पर भी खुल कर बोलने की ज़रूरत है, क्योंकि जब तक वह आंचल में सिमटी रहेंगी, तब तक न तो उन्हें बोलने नहीं दिया जाएगा और न ही उनके दर्द को समझा जाएगा।

यह आलेख मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से युवा लेखिका शिल्पा कुमारी ने चरखा फीचर के लिए लिखा है


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