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53% साइंस ग्रेजुएट पर वैज्ञानिक क्षेत्रों के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी 14% क्यों

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"आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।" इस वाक्य को आधार मानकर आधुनिक मानवीय सभ्यता में वैज्ञानिक आविष्कारों ने महिलाओं के दशकों पुरानी कई समस्याओं का समाधान भी किया। कई महिला वैज्ञानिकों ने मानवता को एक नई दिशा दी और साइंस के दुनिया में अमर हो गई। साथ ही साथ और पूरी दुनिया के लिए मिसाल भी बनी। परंतु, समाज में मौजूद पितृसता ने महिला वैज्ञानिकों के रास्ते में हमेशा रोड़े डाले। महान महिला वैज्ञानिक मैडम क्यूरी के साथ तो नोबेल पुरस्कार के वक्त भी लैंगिक भेदभाव हुआ। कुछ समय पहले भारत में राकेट बाय नाम से बेवसीरिज बनी, तो उसमें महिला वैज्ञानिकों का नाम तक नहीं लिया गया, जबकि उस दौर में कई महिला वैज्ञानिक राष्ट्र के लिए बेहतर करने के लिए सक्रिय थी

नहीं है वैज्ञानिक क्षेत्र के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी

मौजूदा भारत में युवा लड़कियों के साइंस पढ़ने के मामले में रूढ़िवादी मान्यताएं धीरे-धीरे बदल रही है। AISHE यानि अखिल भारतीय उच्च शिक्षण सर्वे की हलिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में साइंस के कोर्सेज में नामांकन के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे हुई है। आज 53% लड़कियां साइंस ग्रेजुएट हो रही है। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में रोजगार में महिलाओं की मात्र 14% भागीदारी है। जाहिर है साइंस रोजगार के क्षेत्र में लड़कियों के भागीदारी को बढ़ाने के लिए और लड़कियों के चुनौतियों को कम करने के लिए हमें और भी सक्रिय कदम लेने होंगे।

सभ्यता के शुरुआत में आधुनिक समाज के मानवीय विकास तक पुरुषों और महिलाओं ने एक साथ लंबा सफर तय किया है। लैंगिक पूर्वाग्रहों के कारण महिलाओं के लिए यह सफर चुनौतियों से भरा हुआ रहा है जिसके कारण युवा लड़कियां साइंस क्षेत्र में स्नातक होने के बावजूद साइंस कैरियर को आगे नहीं बढ़ा पाती है। समानता, स्वतंत्रता और सशक्तिकरण जैसी मानवीय दृष्टि ने महिलाओं को साइंस के क्षेत्र में भी सफल बनाया है। लेकिन चुनौतियां कम नहीं हुई है। जाहिर है युवा लड़कियों को साइंस के क्षेत्र में कई बाधाओं को पार करना है जो कठिन है पर नामुकिन कतई नहीं है।

क्यों नहीं है महिला वैज्ञानिक हमारे रोल मॉडल

आज महिलाएं जिन क्षेत्रों में अपनी सफलता का परचम लहरा रही है, देश ही नहीं दुनियाभर के लड़कियों के लिए मिसाल भी बन रही है। कल्पना चावला, सुनिता विलयम्स जैसी भारतीय मूल की कई महिला वैज्ञानिक एक रोल मॉडल के रूप में उभरी है। साइंस के क्षेत्र में बेहतर कर रही महिला वैज्ञानिकों की उपलब्धि या सफलता खबरों का हिस्सा नहीं बनती। यह कुछ चुनिंदा साइंस मैग्जीन और कुछ अखबार-पत्रिकाओं तक ही सीमित रह जाती है। स्कूली पाठ्यक्रमों में सफल महिला वैज्ञानिकों के उपलब्धियों या जीवन-संघर्ष के बारे में बहुत कम बताया या पढ़ाया जाता है, जिसके करण साइंस के क्षेत्र में लड़कियां अपना रोल मॉडल ही तय नहीं कर पाती है। लड़कियां साइंस पढ़ती जरूर है पर कुछ शुरुआती असफलता के बाद अपना लक्ष्य बदल लेती है। यही कारण है कि साइंस पढ़ने वाली लड़कियों के संख्या में इजाफा हो जाता है परंतु, साइंस कैरियर में उनकी भागीदारी सीमित रह जाती है।

समाजिक-आर्थिक चुनौतियों का पहाड़

लड़कियों के साइंस पढ़ने के चुनौतियां सामाजिक मापदंडों के साथ-साथ आर्थिक तनावों से भी घिरा हुआ है। साइंस पढ़ने के लिए कोर्स के किताबों के साथ-साथ अतिरिक्त सहायक किताबें, स्कूली-कॉलेज शिक्षा के साथ-साथ अतिरिक्त टूयूशन या कोचिंग फीस एक सामान्य परिवार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। KIRAN(किरण) योजना, GATI(गति) योजना, युविका योजना और विज्ञान ज्योति योजना जैसे प्रयास भारत सरकार के तरफ से देश में चलाए जा रहे हैं। लेकिन युवा लड़कियों की पहुंच इन योजनाओं तक काफी कम है। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इन योजनाओं तक लड़कियों का पहुँच हो और वे अगर चाहे तो साइंस के क्षेत्र मी आगे बढ़ सकें। इसके हमें अतिरिक्त कोशिश करनी होगी।

बढ़ाना होगा साइंटफिक टैपरामेंट

भारत सरकार का लक्ष्य साल 2030 तक विज्ञान और प्र्द्योगिकी में महिलाओं की भागीदारी 30% तक बढ़ाने की है। आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 97 पुरुष वैज्ञानिकों में मात्र 35 महिलाएं है। 78.8% पुरुषों के मुकाबले मात्र 59.9% महिलाएं ही ग्रेजुएट हो पा रही हैं। जाहिर है महिलाओं की साइंस ग्रेजुएट या साइंस रोजगार के क्षेत्र में भागीदारी बढ़ाने के लिए अभी लंबी दूरी तय करने की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है कि स्कूली शिक्षा के स्तर पर शिक्षण-प्रशिक्षण महौल में साइंटफिक टैपरामेंट विकसित करना होगा। पारंपरिक संस्कृति और सामाजिक मानदंडों वाली जो जिम्मेदारी लड़कियों को पैदा होते ही मिल जाती है या उसके कंधों पर दे दी जाती है, उसे लोकतांत्रिक मूल्यों, लड़के-लड़कियों की समान भागीदारी और साइंटफिक टैमरामेंट से सींचना होगा। तभी सुनीता विलयम्स और कल्पना चावला जैसे नाम भारतीय मूल नहीं, भारतीय घरों से निकलेंगे और देश-दुनिया के पटल पर छा जाएंगे, करोड़ों लड़कियों के लिए मिसाल बनकर।


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