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“मैं नहीं चाहती कि जो परेशानियां मेरी मां झेल चुकी है, बाल विवाह के कारण मैं भी झेलूं”

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बाल विवाह के खिलाफ असम सरकार का सख्त फैसला इस वक़्त देश और दुनिया में सुर्खियां बनी हुई है। यह शायद पहला मौका है जब किसी राज्य सरकार ने इस सामाजिक बुराई के खिलाफ न केवल सख्ती की है, बल्कि एक्शन भी लिया है। अब तक करीब तीन हज़ार से अधिक लोगों को इस मुद्दे पर गिरफ्तार किया जा चुका है। अच्छी बात यह है कि इसमें जहां परिवार वालों की गिरफ्तारी हुई है, वहीं बाल विवाह कराने वाले बड़ी संख्या में पंडित और मौलवियों को भी सलाखों के पीछे भेजा गया है। असम सरकार का यह कदम भले ही राजनीतिक मुद्दा बन गया हो, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव अवश्य देखने को मिलेंगे। कम से कम इस खबर का असर देश के अन्य राज्यों में भी देखने को मिल सकता है जहां बाल विवाह होना आम बात है।

बाल विवाह के पीछे सामाजिक भेदभाव की जड़ें

दरअसल यह एक ऐसा मुद्दा है, जो लड़का-लड़की में भेदभाव, गरीबी, सामाजिक असमानता को दर्शाता है। यह न केवल एक सामाजिक बुराई नहीं है, बल्कि कानूनन अपराध भी है। ऐसी घटनाएं समाज में महिलाओं और बालिकाओं के प्रति भेदभाव और अवसरों की कमी को दर्शाता है। कम उम्र में विवाह और फिर जल्दी गर्भधारण करने से मां और बच्चे दोनों के पोषण स्तर, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। देश के कई ऐसे राज्य हैं, जहां आज भी या तो चोरी-छुपे या कहीं खुलेआम बाल विवाह कराए जा रहे हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि अब खुद किशोरियां इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं।

उत्तराखंड का पोथिंग जहां बाल विवाह आम है

ऐसा ही एक मामला उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक से 17 किमी दूर पोथिंग गांव में देखने को मिला है। यहां आज भी बाल विवाह जैसी प्रथा आम है। यहां कम उम्र में ही लड़कियों की शादी को समाज से मौन स्वीकृति प्राप्त रहती है। यहां लड़की की मर्ज़ी पूछे बिना ही उसकी शादी करा दी जाती है। पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों को न कहने की आज़ादी भी नहीं है। बाल विवाह के कारण कई लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है और उनके उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना अधूरा रह जाता है। हालांकि किशोरियों में आई जागरूकता और सामाजिक कार्यकर्ताओं की तत्परता से कुछ बाल विवाह रुके भी हैं और लड़कियां इसका शिकार होने से बची हैं।

बाल विवाह का विरोध करती किशोरियाँ

बाल विवाह का शिकार होने से बची; गांव की एक 15 वर्षीय किशोरी पायल (बदला हुआ नाम) 10वीं कक्षा में पढ़ती है। वह कहती है, "मेरा सपना है कि मैं पढ़-लिखकर नौकरी करूं। लेकिन मेरे घरवाले जबरदस्ती मेरी शादी करवाना चाहते थे। जब घर में मेरी शादी की बात चल रही थी, तो मैं मानसिक रूप से बहुत परेशान थी। मैं शादी करके अपनी जिंदगी खराब नहीं करना चाहती थी। मेरे घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और वे चाहते थे कि मेरी शादी करा कर अपने सिर का एक बोझ कम कर दें। शुरु से मेरे पिता हमारे साथ नहीं रहते हैं। इस कारण मां के ऊपर पूरे घर की जिम्मेदारी है और वह चाहती थी कि मैं जल्दी से जल्दी शादी करके अपने ससुराल चली जाऊं। लेकिन मैंने ऐसा होने नहीं दिया। मैंने अपनी शादी नहीं होने देने दी। मैं नहीं चाहती थी कि जो परेशानियां मेरी मां झेल रही है, मैं भी वही झेलूं।"

चरम गरीबी से बचने का उपाए हो जाता है बाल विवाह

वहीं पायल की मां कमला देवी (बदला हुआ नाम) का कहती है, "पिछले 37 सालों से मेरा जीवन बहुत ही कष्टकारी रहा और आगे मुझे कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा यह मुझे नहीं पता। मेरी भी 15 साल की उम्र में शादी हो गई थी और वह समय ऐसा था जब कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं था। आज मैं 5 बच्चों की मां हूं। इस सफर में सबसे ज्यादा कष्ट तो तब हुआ जब मेरे पति ने मेरा साथ छोड़ दिया और किसी और के साथ रिश्ता रखा। इस अवस्था में मैं मजदूरी करके किसी तरह अपने बच्चों का भरण पोषण करती हूं। इसीलिए चाहती थी कि पायल की जल्द शादी हो जाए।"

बाल विवाह का दंश झेल रही गांव की एक महिला मालती देवी कहती हैं कि जब से मैं शादी करके आई हूं, तभी से देख रही हूं कि पोथिंग गांव में 15 या 16 साल की उम्र में गांव के किशोरियों की शादी कर दी जाती है। जिस उम्र में वह अपने आप को नहीं संभाल सकती, उस उम्र में किसी के घर को कैसे संभाल सकती है? वह कहती हैं कि मेरी बेटी भी 15 वर्ष की है और मुझ पर भी उसकी शादी करवाने का दबाव बनाया जा रहा है। लेकिन मैं किसी की नहीं सुनती हूं। मैं नहीं चाहती कि जिन मुसीबतों से मैं गुजरी हूं, वो भी गुजरे। मुझे पता है कम उम्र में शादी के क्या दुष्परिणाम होते हैं।

गांव के सरपंच राजू राव बाल विवाह होने का मुख्य कारण गरीबी और अधिक बच्चों का होना मानते हैं। वह कहते हैं, "शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण लोग यह नहीं सोचते हैं कि लड़की की उम्र में शादी के क्या परिणाम होंगे? हालांकि पंचायत भी अपने स्तर पर इसके खिलाफ मुहिम चलाती है। इसके लिए लोगों को कानूनी और मेडिकल दोनों ही दृष्टि से समझाया जाता है। जिन लड़कियों की कम उम्र में शादी हुई हैं, उनके हालात हम देख रहे हैं।" वह आगे बताते हैं, "मैं हमेशा अपने गांव के लोगों को यह समझाने का प्रयास करता हूं कि बाल विवाह न करें। अपनी लड़कियों को पढ़ाएं ताकि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके। लेकिन यहां के लोगों की मनोदशा बदली नहीं जा सकती है। हालांकि कुछ महिलाएं ऐसी हैं, जो इन सब चीजों को समझती हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।"

पिछले एक साल से गांव में किशोरी जागरूकता पर काम कर रही संस्था चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क के प्रोजेक्ट एसोसिएट आयुष्य सिंह कहते हैं कि चाहे कानून बने हो, लेकिन आंकड़ों के हिसाब से भारत में अब भी बाल विवाह की कुप्रथा जिंदा है। पोथिंग जैसे देश के दूर-दराज़ गांवों में बाल विवाह खुले आम होती है। कोविड महामारी का इस पर दीर्घकालिक प्रभाव नजर आ रहा है। कोविड के कारण कई लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई। वहीं घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति की मार भी इन किशोरियों को बाल विवाह के रूप में भुगतने पड़ते हैं। इसका असर उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है। सरकार के लिए यह जरूरी है कि कोविड के पश्चात, देश में हो रहे बाल विवाह के वृद्धि पर कोई ठोस कदम उठाए ताकि किशोरियों को इसका दंश न झेलना पड़े। हालांकि अब खुद लड़कियों का इसके खिलाफ आवाज़ उठाना इस बात का संकेत है कि जागरूकता आ रही है।

यह आलेख पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक के पोथिंग गांव की युवा लेखिका निशा गड़िया ने चरखा फीचर के लिए लिखा है. निशा ने भी स्वयं बाल विवाह के खिलाफ आवाज़ उठाकर अपनी शादी को रुकवाने में कामयाबी हासिल की है.


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