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“हम लड़कियों को 12वीं तक पढ़ा दिया जाता है, पर नहीं मिलते बराबर मौके”

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Educational crisis in Uttarakhand due to gender discriminationEducational crisis in Uttarakhand due to gender discrimination

भारत में हर बच्चे का अधिकार है कि उसे; उसकी क्षमता के विकास का पूरा मौका मिले। लेकिन आज़ादी के सात दशक बाद भी देश में लैंगिक असमानता की धारणा विद्यमान है। इसके पीछे सदियों से चली आ रही सामाजिक कुरीतियां मुख्य वजह रही हैं, जिसकी वजह से लड़कियों को मौके नहीं मिल पाते हैं। भारत में लड़कियों और लड़कों के बीच न केवल उनके घरों और समुदायों में बल्कि हर जगह लैंगिक भेदभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। विशेषकर देश के दूर दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों में यह असमानता मज़बूती से अपनी जड़ें जमाए हुए है। इसकी वजह से लड़कियों को उनकी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन का अवसर नहीं मिल पाता है। हालांकि हरियाणा और उत्तर पूर्व के कुछ राज्य ऐसे ज़रूर हैं जहां के ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों को खेलों में जाने का अवसर मिला और उन्होंने इसका भरपूर लाभ उठा कर ओलंपिक जैसे अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में देश का नाम रौशन किया है। लेकिन देश के ज़्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में संकुचित सोच के कारण लड़कियों को ऐसा मौका नहीं मिल पाता है।

लड़कियों की शिक्षा में भेदभाव

ऐसा ही एक उदाहरण पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक के चोरसौ गांव में देखने को मिलता है। अनुसूचित जाति बहुल वाले इस गांव की कुल जनसंख्या 3584 है और साक्षरता दर करीब 75 प्रतिशत है। लेकिन इसके बावजूद यहां की किशोरियों को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इस संबंध में 10वीं की एक छात्रा विनीता आर्या का कहना है, "हम लड़कियों को जैसे-तैसे 12वीं तक पढ़ा तो दिया जाता है, लेकिन बराबरी के मौके नहीं मिलते हैं। यह शिक्षा उन्हें तब तक मिलती है जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती है। लेकिन लड़कों की बात जाए तो उनकी उच्च शिक्षा के लिए मां बाप अपनी जमीन तक बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं। यही सोच कर लगता है कि कहां मिला बराबरी का हक?" वहीं गांव की एक 45 वर्षीय महिला रजनी देवी कहती हैं, "पहले की अपेक्षा गांव के लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। कुछ शिक्षित और जागरूक माता पिता लड़के और लड़कियों को बराबर शिक्षा दे रहे हैं। हालांकि जहां लड़कों की शिक्षा के लिए शत प्रतिशत प्रयास करते हैं, वहीं लड़कियों के लिए उनका प्रयास अपेक्षाकृत कम होता है। हम यही सब बचपन से देखते आ रहे हैं।" वह बताती हैं कि उनके दोनों भाईयों को 12वीं तक शिक्षा दिलाई गई, जबकि बहनों की आठवीं के बाद ही शादी कर दी गई।

बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ से हमें क्या मिला

वहीं 66 वर्षीय रुक्मणी भी कहती हैं कि 'अब समाज की सोच बदलने लगी है। पहले की अपेक्षा लड़का और लड़की में भेदभाव कम होने लगा है। इसमें सरकार द्वारा चलाई गई योजना 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' का काफी असर हो रहा है। सरकार ने लड़कियों के आगे बढ़ने के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं दी हैं, उसका व्यापक प्रभाव देखने को मिल रहा है। सरकार ने 12वीं तक किताबें भी मुफ्त कर दी हैं, ड्रेस के पैसे मिल रहे हैं। विभिन्न प्रकार की छात्रवृतियां प्रदान की जा रही हैं। जो लड़कियों को शिक्षित करने में सहायक सिद्ध हो रहा है। लेकिन फिर भी मुझे नहीं लगता है कि लड़कियों और महिलाओं को अभी भी पूर्ण रूप से बराबरी का हक मिल रहा है। महिला जहां दिन भर मजदूरी करती है तो उसे 300 रुपए मिलते हैं, वहीं पुरूष को उसी काम के लिए 500 रूपए दिए जाते हैं।

संविधान तो है पर कहाँ है बराबरी

गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता 46 वर्षीय आमना कहती हैं कि 'जब से मैंने आंगनबाड़ी में नौकरी करनी शुरु की है, कई लोगों से मिलती रहती हूं। इस दौरान मैंने जाना कि वास्तव में लड़कियों के लिए भी समाज में बराबरी के हक होने चाहिए।' वह कहती हैं कि संविधान ने तो सभी को बराबरी का हक दिया है। सरकार ने भी लैंगिक असमानता को दूर करने और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बहुत सी योजनाएं चलाई हैं। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी माता पिता 12वीं के बाद से ही लड़कियों की शादी की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। लेकिन लड़कों के लिए 25 से 27 वर्ष में ही शादी की बात करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि कम उम्र में लड़के घर की ज़िम्मेदारी को उठाने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर 17 या 18 वर्ष की उम्र में कोई लड़की कैसे पूरे घर की जिम्मेदारी उठा सकती है?

बेटे के चाह में बेटियों को बोझ मानते लोग

इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी का कहना है कि 'ये बात सही है कि शहरों की अपेक्षा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को बराबरी के मौके नहीं मिलते हैं। उन्हें बोझ समझ कर ढोया जाता है। दो के‌ बाद यदि तीसरी ‌भी बेटी हो तो फिर महिला का जीना मुश्किल कर दिया जाता है। लड़कों की चाह में लड़कियों की लाइन लग जाती है। अगर वास्तव में लड़कियों को बराबरी का दर्जा मिला होता तो यह सारी चीजें बहुत पहले समाज में खत्म हो गई होती। लोग अपने आप को पढ़े लिखे आज़ाद ख्याल के कहते हुए भी लड़कियों को बोझ मानते हैं। अगर महिलाओं की बात करें तो शादी के बाद भी उसे अपने परिवार में बराबरी के मौके और हक नहीं मिल पाते हैं। परिवार की जिम्मेदारी उठाने के बाद भी उसे ताने सुनने पड़ते हैं। यदि लड़का दिन भर घर से गायब रहे तो उससे कोई सवाल नहीं करता, लेकिन यदि कोई लड़की नौकरी या पढ़ाई के कारण देर शाम घर लौटे तो भी सवालों की झाड़ियां लग जाती है।

क्या है समाज की स्थिति

वास्तव में, लड़कियों को अभी भी बराबरी के वह मौके नहीं मिले हैं जिसकी वह हकदार है। अगर हमारे समाज में एक लड़की का बलात्कार होता है तो दुनिया उसी के चरित्र पर सवाल उठाती है। पीड़िता का साथ देने की बजाये उसी को आरोपी बना दिया जाता है। उसका मानसिक उत्पीड़न किया जाता है। जबकि बलात्कारी लड़के को बचाने के लिए परिवार अपनी संपत्ति तक बेचने को तैयार हो जाता है। समाज भी उसी का साथ देने को तैयार रहता है। शादी के बाद जब एक लड़की मां बनती है तो बच्चे की सारी जिम्मेदारी, आदर्शों और संस्कारों की परवरिश सब कुछ अकेले उसके ऊपर डाल दी जाती है। तो ऐसे में बराबरी की बात बेमानी लगती है। दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में लड़का और लड़की में भेदभाव और लैंगिक असमानता शिक्षा के साथ साथ जागरूकता के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है।

यह आलेख चोरसो, उत्तराखंड से दिशा दीदी योगिता आर्या ने चरखा फीचर के लिए लिखा है


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