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“आखिर सरकारी स्कूलों में गरीब बच्चों का शैक्षणिक विकास क्यों नहीं?”

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Educational crisisEducational crisis

किसी भी राष्ट्र की उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि उसके नागरिक सामाजिक, बौद्धिक व चारित्रिक स्तर पर कितने समृद्ध हैं। ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक ज्ञान आदि के जरिए ही मानव ज्ञानी, विवेकी, सक्षम और चरित्रवान बनता है। मानव को अच्छा इंसान बनाने में औपचारिक व अनौपचारिक रूप से शिक्षा की बड़ी भूमिका होती है। बिना शिक्षा के मानव पशु के समान है। आदिकाल से ज्ञान पिपासुओं के बल पर ही विश्व ने अनेकशः अनुसंधान और नए-नए आविष्कार किया है। मानव केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं रहा अपितु वह तमाम भौतिक और आध्यात्मिक चीजों की खोज करके मानव जीवन व समस्त धरती को सुख-सुविधाओं से संपन्न किया है। वैज्ञानिक से लेकर दार्शनिक तक ने गुरु की दीक्षा व मार्गदर्शन से ही वांछित लक्ष्य को प्राप्त किया है। हमारे देश में प्राचीन समय से गुरु के महत्व को स्वीकार किया गया है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि गुरु वह नहीं जो विद्यार्थी के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक गुरु तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।

गांवों में बदलता स्कूल का माहौल

वर्तमान समय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व बच्चों का सर्वांगीण विकास के लिए दुनियाभर में बाल मनोविज्ञान और शिक्षा पद्धति पर नित्य नए-नए अनुसंधान हो रहे हैं। आज की शिक्षा बाल केंद्रित है। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए भाषा कौशल, तकनीकी कौशल, जीवन कौशल, सामाजिक मूल्य, शैक्षिक भ्रमण, प्रयोगशाला, स्मार्ट क्लास, आइटी शिक्षा आदि शैक्षणिक विकास में मील का पत्थर साबित हो रहा है। इस परिवर्तन से बच्चों का आईक्यू लेवल काफी बढ़ा है। बच्चों में इमेजिंग क्षमता और अभिव्यक्ति कौशलों का भी जबर्दश्त ग्रोथ हुआ है। दो दशक पहले खासकर गांव के बच्चे स्कूल जाने से कतराते थे। स्कूल का वातावरण अच्छा नहीं लगता था। 

प्राइवेट और सरकारी स्कूलों की टक्कर

पढ़ाई के प्रति रूचि का अभाव रहता था। आज वही बच्चे शिक्षा लेने के लिए स्कूल से लेकर ट्यूशन तक काफी सक्रिय रहते हैं। लेकिन यह विडंबना ही है कि आज की शिक्षा व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बनती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र के संपन्न परिवार के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में पठन-पाठन कर रहे हैं। इससे इतर गरीब, मजदूर व मध्यम किसान वर्ग के नौनिहालों की शिक्षा पूर्णतः सरकारी विद्यालयों पर निर्भर है। आजादी के सात दशक उपरांत हमने जितनी तरक्की कर ली हो, लेकिन आज भी यह हकीकत है कि भारत में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था लागू है। एक ही गांव से कुछ संपन्न बच्चे प्राइवेट स्कूल जाते हैं, तो दूसरी ओर आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं।

बिहार के मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत पारू प्रखंड स्थित चांदकेवारी के वयोवृद्ध बिहारी प्रसाद कहते हैं, "प्राइवेट स्कूल के शिक्षकों से अधिक योग्य शिक्षक जो सीटीइटी (सेंट्रल टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट) व एसटीइटी (सेकेंडरी टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट) पास करके सरकारी स्कूल में आ रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि गरीबों के बच्चों का शैक्षणिक विकास प्राइवेट स्कूल के बच्चों से कम हो रहा है?" हाल ही में शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के के पाठक ने सरकारी स्कूल की कायापलट को लेकर बेहतरीन काम शुरू किया है। केके पाठक ने जब खुद सरकारी स्कूलों का औचक निरीक्षण किया तो शिक्षकों में हड़कंप मच गया।

सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था बदलने की कोशिश

इतना तो जरूर हुआ है कि शिक्षकों की दैनिक उपस्थिति सुधरी और प्रशासनिक एक्शन के चलते स्कूल की साफ-सफाई, प्रार्थना सभा, कक्षा कक्ष कार्य को पूरी तल्लीनता से किया जा रहा है। इधर, कुछ दिनों से संविदा कर्मियों का धरना-प्रदर्शन में शामिल होने को लेकर विभाग सीसीटीवी से चेहरे का मिलान करके कार्रवाई कर रही है। पाठक ने फरमान जारी कर कहा है कि कोई शिक्षक स्कूल से गायब रहेंगे, तो उनकी खैर नहीं है। स्कूल ही नहीं, कॉलेजों में भी औचक निरीक्षण लगातार सुर्खियां बटोर रही हैं। सचिव ने कॉलेजों में छात्रों की संख्या को लेकर ताजा फरमान जारी किया है कि जहां छात्र कम होंगे उस कॉलेज की मान्यता रद्द कर दी जाएगी। ऐसे बहुत सारे कॉलेज हैं, जहां छात्रों की उपस्थिति नगण्य रहती है। केवल परीक्षा के समय छात्रों की भीड़ उमड़ती है।

सभी शिक्षकों को क्यों न मिले समान अधिकार

इस संबंध में सेवारत शिक्षकों ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि सरकार केवल काम लेना चाहती है। एक ही स्कूल में एक शिक्षक राज्यकर्मी हैं तो दूसरा नियोजित है। जबकि शिक्षकों को सम्मानित वेतनमान मिलनी चाहिए। हाल ही में बिहार सरकार शिक्षकों को राज्यकर्मी का दर्जा देने को लेकर शिक्षक संघ के पदाधिकारियों के साथ उच्च स्तरीय बैठक की थी। आश्वासन भी दिया गया कि शीघ्र ही तमाम बिंदुओं पर सरकार निर्णय लेगी। शिक्षकवर्ग में असंतोष की सबसे बड़ी वजह है उपयुक्त वेतमान नहीं मिलना है। स्कूल की तमाम गतिविधियों में परिवर्तन साफ-साफ दिख रहा है। दूसरी ओर स्कूल में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति के लिए 1 लाख 70 हजार बहाली बीपीएससी (बिहार लोक सेवा आयोग) के माध्यम से कराई जा रही है ताकि बिहार के नौनिहालों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलाई जा सके। बहाली की प्रक्रिया बहुत तेजी से हो रही है। उम्मीद है कि जल्द ही स्कूलों में शिक्षकों की कमी दूर हो जाएगी।

विषयवार शिक्षकों की कमी

स्कूल शिक्षा विभाग की इकाई यूडीआईएसई (यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन) की रिपोर्ट की मानें तो बिहार में एक साल के दौरान तकरीबन 2945 नए सरकारी विद्यालयों खुले हैं। जहां विषयवार शिक्षकों का अभाव है। 2019-20 में सरकारी स्कूलों की संख्या 72,610 थी, जो 2020-21 में बढ़कर 75,555 हो गई है। निजी स्कूलों की संख्या तकरीबन 7923 है। शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार बिहार में साक्षरता दर 61।8, अरुणांचल प्रदेश 65।5 एवं राजस्थान 66।1 प्रतिशत है। केरल में सबसे अधिक साक्षरता दर 94 प्रतिशत और लक्षद्वीप में 91।85 प्रतिशत है। साक्षरता के मामले में बिहार सबसे पिछड़ा राज्य है। वैश्विक स्तर पर बिहार प्राचीन समय से ज्ञान, विज्ञान व विद्या का केंद्र रहा है। एक समय में नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय आदि की पूरी दुनिया में धाक रही है। ऐसे में संकल्प लेने की जरूरत है कि शिक्षा की लौ जलाने में स्थानीय लोग भी शैक्षिक विकास की दिशा में सहभागिता व सक्रियता निभाएं। शिक्षक व शिक्षालय के जरिए ही राष्ट्र के नागरिक जागरूक, सशक्त, स्वावलंबी एवं जिम्मेदार बन सकते हैं। वास्तव में, एक शिक्षक ही देश के ज़िम्मेदार नागरिक तैयार करने का असली शिल्पकार है।

यह आलेख मुजफ्फरपुर, बिहार से अमृतांज इंदीवर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है


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