Quantcast
Channel: Campaign – Youth Ki Awaaz
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3094

‘भंगी मुक्त’राज्य बनाने की नीतीश सरकार की कोशिश विफल क्यों हो गई?

$
0
0

पटना में मैला ढोने का काम करने वाली शर्मिला फोन पर बातचीत के दौरान बताती है, “उसका यह काम जाति व्यवस्था के अनुसार निर्धारित है, उसको यह काम नहीं करना था तो उसने घर बदल लिया और दूसरे शहर चली गई, घरेलू नौकर बन गई, जिसमें वह छह महीने तक खुश भी रही। फिर एक दिन परिवार वालों को उसकी जाति की पहचान हो गई, उन्होंने मारा-पीटा और उसकी साड़ी तक उतार दी।” अब वह मैला ढोने के काम में वापस आ गई है।

70 साल की आज़ादी के बाद मिशन चंद्रयान-2 के लिए कमर कस चुके देश में अगर आज भी मैला ढोने का सिलसिला जारी है तो ज़ाहिर है कि अपने देश में इंडिया और भारत के बीच में गहरी खाई है जिसे पाटने के लिए तमाम संवैधानिक और कानूनी उपाए पूरी तरह विफल रहे हैं। भले ही मौजूदा सरकार “स्वच्छ भारत अभियान” में बड़े-बड़े दावे कर रही है परंतु इन योजनाओं में बहुत बड़ा विरोधाभास यही दिखाता है कि सरकार और समाज दोनों संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार पर मौन है। मैला ढोने वाले लोगों की संख्या घटने के बजाए बढ़ते ही जा रही है।

यूपी की मैला ढोने वाली महिलाएं

मैला ढोना मौजूदा समय में भी श्रम व्यवस्था का वह अध्याय है जो मौजूद होते हुए भी पूरी तरह से अदृश्य है। इसमें महिलाओं के श्रम की यथास्थिति पर बहस पब्लिक स्फीयर में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि वह विमर्श का हिस्सा ही नहीं है। पूरा का पूरा समुदाय खदबदा रहा है परिवर्तन के रास्ते को पकड़ने के लिए परंतु आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ इतना कठोर है कि बार-बार तमाम कोशिशों के बाद भी हाशिए पर ढकेल दिया जा रहा है।

अब तक उदारवादियों, मार्क्सवादियों, गांधीवादियों और अंबेडकरवादियों की तमाम परंपराओं के बीच से लंबी बहस के बाद शुद्धता-अशुद्धता और सांस्कृतिकरण की समझ से इस समस्या को नया बौद्धिक आयाम भी मिला। कुप्रथा के विरुद्ध महात्मा गांधी के प्रयास मानवतावादी प्रयास कहे जाए तो डॉ अंबेडकर के प्रयास संवैधानिक और कानूनी कहे जा सकते हैं, जिसने इस समुदाय के लोगों में अस्मितामूलक विमर्श की शुरुआत की।

90 के दशक में कांशीराम ने नए सामाजिक आंदोलनों की पहल करने वाले स्वयंसेवी संगठनों की सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं और सीमाओं को बेनकाब कर दिया। “एकला चलो रे” की नई परिघटना ने पहले सोशल इंजीनियरिंग और बाद में नए हरावल की रचना करने में कामयाब रही। इन तमाम चेतनाओं से मैला ढोने वाले समाज के लोगों में राजनीतिक चेतना तो मजबूत हुई है इसमें कोई दो राय नहीं है परंतु यह राजनीतिक चेतना मैला ढोने वाले समाज के सामाजिक सवालों को सुलझाने में विफल सिद्ध हुई है। इस समुदाय की समस्या जस की तस है, वही खड़ी है ना एक कदम आगे बढ़ी है ना एक कदम पीछे।

इस दिशा में कानून की उड़ रही हैं धज्जियां

इसका प्रमाण है सिर पर मैला ढुलवाने के काम एवं कमाऊ (सूखे) पखानाघरों का निमार्ण (निषेध) अधिनियम 1993, जिसके तहत किसी व्यक्ति से मैला ढुलवाने का काम लेना दंडनीय अपराध है। इसके लिए कैद से लेकर आर्थिक जु़र्माने तक का प्रावधान है।
बावजूद इसके इस कानून की धज्जियां उड़ते रहती हैं। देश के प्रमुख लोकतांत्रिक उत्सव 26 जनवरी और 15 अगस्त के अवसर पर भी सफाई कर्मचारियों के हाथों तिरंगा के बदले झाड़ू ही होता है। कमोबेश हर दिन गांव, देहात, शहर, कस्बे में मानव मल का कनस्तर उठाये भंगी महिलाएं, बच्चे, युवा, बूढ़े इसलिए नहीं दिखते हैं क्योंकि सुबह पौ फटते ही सिर पर मैला भी ढोया जाता है पर चोरी-चोरी। पकड़े जाने पर पुलिस की मार।

भाषा सिंह ने अपनी किताब “अदृश्य भारत” में बताया है कि 2001 के सेन्सस के अनुसार देश में मैला ढोने और सफाई का काम करने वाली अनुसूचित जातियों की कुल आबादी 1,97,25,376 है, जिनकी पहचान बिहार में हलालखोर, हारी, मेहतर, भंगी और लालबेगी के नाम से होती है। बिहार के मैला ढोने वालों के बारे में संगीता कुमारी “दलित महिला अधिकार और स्वास्थ्य” में लिखती हैं कि 2001 के जनगणना के अनुसार बिहार में ग्रामीण क्षेत्र में 7,55,667 पिट लैट्रिन हैं, 1,50,391 शहरी इलाकों में है, नौ लाख सूखे शौचालय हैं और 8000 मैला ढोने वाले हैं, गैर सरकारी आकंड़ों में यह 20,000 के आसपास हैं।

भंगी मुक्त राज्य बनाने की सरकार की कोशिश विफल

बिहार सरकार ने “भंगी मुक्त” राज्य बनाने के लिए करोड़ों रुपये की योजना की भी शुरुआत की थी। बदलते समय में सुशासन के नाम पर राज्य में आई नई सरकारों ने भी भंगी समुदाय की पहचान “महादलित समुदाय” के रूप में ज़रूर की परंतु समुदाय विकास के पैमानों पर अभी भी हाशिए पर ही है। पटना उच्च न्यायालय के हलफनामें बताते हैं कि राज्य के अधिकांश ज़िलों में आज भी मानव मल ढोने का कार्य बदस्तूर जारी है, जिसमें राज्य की राजधानी भी शामिल है।

राज्य में भंगी का काम करने वाली अधिकांश महिलाएं बातचीत के दौरान बताती हैं कि वह मैला ढोने के काम को घृणित काम मानती हैंं परंतु इसे करना अपनी मजबूरी भी बताती हैं। वो जानती हैं कि यह गैरकानूनी काम है पर कानून से पेट नहीं भरता है। इनका छुआ खाना भी समाज में स्वीकार्य नहीं है तो और कोई काम करने का विकल्प ही नहीं है।

इस समुदाय के लोगों को ना ही वृद्धा पेंशन मिलता है ना इंदिरा आवास, ना ही लाल कार्ड-पीला कार्ड ही। गरीबी रेखा से नीचे होने के बाद भी उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिलता है।

इस समुदाय की महिलाओं के स्वास्थ्य पर नहीं होती बात

मैला ढोने वाले समुदाय की महिलाओं की त्रासदी यह है कि उन्हें एक गाल पर ब्राह्मणवाद का तो दूसरे गाल पर पितृसत्ता का थप्पड़ भी खाना पड़ता है। इन दोनों यथास्थिति के बीच इस समुदाय की महिलाओं का स्वास्थ्य वह कठोर यर्थाथ है जिसपर कभी बात ही नहीं होती है क्योंकि किसी भी परिवार में महिलाओं का स्वास्थ्य कभी प्राथमिक विषय रहा ही नहीं है।

तिसपर मैला ढोने वाली महिलाएं बहुत कम पैसे, बासी खाना खाकर भी अपना काम करती हैं क्योंकि अन्य विकल्प ही नहीं हैं उनके पास। बहुतों को खाने की कमी, बहुत थकान, समय से पहले बच्चा हो जाने, गर्भपात, बार-बार गर्भवती होने से आई कमज़ोरी, चर्मरोग, पानी से होने वाले रोगों और टीबी की शिकायत से परेशान हैं, बदन पर शौच की बदबू तक नहीं मिटा पाती। यह महिलाएं उल्टी, दस्त, चक्कर आने जैसी समस्याओं पर ध्यान ही नहीं देती हैं। समुदाय में प्रजनन संबंधी रोगों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है, जैसे महावारी में अधिक खून बहना, गर्भपात, रक्ताल्पता आदि।

आधुनिक तकनीक से लैस भव्य अस्पतालों के दौर में मैला ढोने वाली महिलाओं की बीमारियां और इलाज के अभाव में उनकी मौत मौजूदा भारत की ज़मीनी सच्चाई है। यह स्थिति बताती है कि इनकी सेहत का इलाज महज़ कुछ विषाणुओं और इलाज भर से जुड़ा हुआ मामला नहीं है। एक-एक सेहतमंद समाज के सपने के साथ-साथ उस समाज की महिलाओं के स्वास्थ्य एवं अधिकार से भी जुड़ा मामला है जिसपर संकीर्ण समाज की नैतिकता की पहरेदारी भी है। जिन स्वास्थ्य सेवाओं पर वे निर्भर हैं वह सक्षम नहीं है और जो सक्षम स्वास्थ्य सेवा है वह इतनी मंहगी है कि इनकी पहुंच से बाहर है।

ज़ाहिर है यह समस्या व्यवस्थागत समाधान की मांग करती है, क्योंकि इस समुदाय की महिलाओं का जीवन निरक्षरता, अस्वास्थ्य, गरीबी, खाद्य असुरक्षा, पोषण असुरक्षा और उनके विरुद्ध हिंसा को समर्थन देने वाले नकारात्मक सामाजिक रुखों और आचरणों के महीन जाल में फंसा है। जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं मिलता इनकी हताशा और अलगाव की गहराई इस बात का संकेत है कि सामाजिक और राजनीतिक समाधान ज़रूरी नहीं, बहुत अधिक ज़रूरी है।

समस्या यह है कि राजनीतिक प्रयासों से अगर नीतियां और कानून बनते भी हैं तो वह जड़ हो चुकी सामाजिकता पर चोट नहीं कर पाती है। सामाजिक और राजनीतिक प्रयास के बीच कोई तादम्य ही स्थापित नहीं हो पाता समस्या को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए। इसलिए इस समुदाय से अपने संघर्षों से पहचान पाने वाले लोगों को भी सम्मान नहीं मिल पाता है जो एक लोकतांत्रिक देश में उसका अधिकार है। इस समुदाय के तमाम प्रतिष्ठित लोगों को समाज की इस त्रासदी को झेलना पड़ा है फिर चाहे वो मुख्यमंत्री हो राष्ट्रपति हो या फिर एक आम इंसान।

The post ‘भंगी मुक्त’ राज्य बनाने की नीतीश सरकार की कोशिश विफल क्यों हो गई? appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3094

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>