

हमारे देश में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो किसी न किसी प्रकार से दिव्यांग हैं। केंद्र की सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार देश की कुल 121.08 करोड़ की आबादी में 2.68 करोड़ दिव्यांगों की संख्या है, जो कुल आबादी का 2.21 प्रतिशत है। इनमें 1.5 करोड़ पुरुष और 1.18 करोड़ महिलाएं हैं। अहम बात यह है कि दिव्यांगों की कुल जनसंख्या का 69% देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, जहां शिक्षा और जागरूकता के अभाव में यह लोग न केवल अपने अधिकारों से वंचित होते हैं बल्कि अक्सर समाज की उपेक्षाओं का भी शिकार होते हैं। यदि दिव्यांग कोई महिला या किशोरी होती है, तो ग्रामीण परिवेश में उसका जीवन और मुश्किल हो जाता है। कई बार ऐसी दिव्यांग प्रतिभा के होने के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाती हैं क्योंकि समाज से उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता है।
जम्मू की रुखसाना का संघर्ष
जम्मू के सीमावर्ती जिला पुंछ के मंडी तहसील स्थित लोआबेला मोहल्ला की रहने वाली 16 वर्षीय रुखसाना कौसर ऐसी ही एक दिव्यांग किशोरी है, जो समाज की उपेक्षा के कारण शिक्षा प्राप्त करने में कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना कर रही है। दसवीं कक्षा की छात्रा रुखसाना को दिव्यांगता के कारण प्रतिदिन स्कूल जाने और आने में काफी दिक्कतें होती हैं। रुखसाना बताती है, "मेरे स्कूल का नाम लॉरेन हाई सेकेंडरी स्कूल है। यह मेरे घर से पांच किमी की दूरी पर स्थित है। मैं स्कूल पहुंचने के लिए प्रतिदिन अपने एक पैर और एक छड़ी के सहारे इस यात्रा को तय करती हूं। पहाड़ी और पथरीले रास्ते होने के कारण मैं सही से चल नहीं पाती हूं। यही कारण है कि मैं लगभग हर दिन अपनी कक्षा में देर से पहुंचती हूं। मेरा सारा समय स्कूल आने-जाने में ही बीत जाता है।" एक सवाल के जवाब में रुखसाना कहती हैं, ''स्कूल जाने के दौरान रास्ते में मैं जब भी किसी सवारी गाड़ी को रुकने का इशारा करती हूं, तो कोई भी ड्राइवर मेरी दिव्यांगता की वजह से मुझे गाड़ी में नहीं बैठाता है। कभी-कभी जब मैं बैठ भी जाती हूं तो मुझे लोगों से कई तरह की अलग-अलग बातें सुननी पड़ती हैं। मैं चुपचाप सिर झुकाकर उनकी बातें सह लेती हूं। कई बार मेरे दोस्त भी मेरी अक्षमता का मजाक उड़ाते हैं। हालांकि जब लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं तो मेरी हिम्मत बढ़ जाती है, क्योंकि मेरा सपना शिक्षा प्राप्त कर आत्मनिर्भर बनना है। मैं टीचर बनकर अपने समाज और क्षेत्र को शिक्षा के गहनों से लैस करना चाहती हूं। उन्हें बताना चाहती हूं कि दिव्यांगों की मजबूरियां क्या हैं? उनका मजाक उड़ाने के बजाय उनकी किस प्रकार मदद करनी चाहिए। लोग शिक्षित तो हो जाते हैं लेकिन जागरूक नहीं हो पाते हैं।"
नहीं मिल रहा सरकार की ओर से सहायता
रुखसाना को शिकायत है, "काश सरकार की ओर से मुझे कोई साधन उपलब्ध करा दिया जाता तो मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाती। आजकल दिव्यांगों को स्कूटी, व्हील चेयर और अन्य कई सुविधाएं दी जाती है। लेकिन मुझे आज तक ऐसी कोई सुविधा नहीं मिली है। यदि मैं एक दिव्यांग के रूप में शिक्षा प्राप्त कर रही हूं, तो मेरी शिक्षा के लिए उचित प्रावधान होना चाहिए। मैं शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग से अनुरोध करती हूं कि मेरी दिव्यांगता को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसा उपाय करे कि मैं आसानी से अपने स्कूल आना-जाना कर सकूं और अपने सपनों को पूरा कर देश और अपने गांव की सेवा कर सकूं।" रुखसाना की मां तज़ीम अख्तर बताती हैं कि वह बचपन से ही एक पैर से दिव्यांग है। उसे पढ़ने और आगे बढ़ने का बहुत शौक है। हम एक बहुत ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जहां दो वक्त की रोटी कमाना भी कठिन होता है। इस दुर्गम बर्फीले इलाके में हम मुश्किल से अपना जीवन यापन करते हैं। रुखसाना को पढ़ने का बहुत शौक है, लेकिन उसका स्कूल बहुत दूर है। वह घर से स्कूल जाती है। उसके पूरे पैर में तेज दर्द होता है जिससे वह पूरी रात रोती है। लेकिन वह अगले दिन फिर से स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाती है क्योंकि उसे अपना सपना पूरा करना है। मेरी बेटी का सपना कैसे पूरा होगा? मैं उसके लिए न्याय चाहती हूं।

दिव्यांगों की नहीं बदल रही दुनिया
रुखसाना की पड़ौसी 22 वर्षीय नईमा अख्तर कहती हैं, "अफसोस की बात है कि इस डिजिटल युग में भी रुखसाना जैसी दिव्यांग लड़कियों के लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। क्या सरकार के पास इस बच्ची के शिक्षा प्राप्त करने और उसके सपने को पूरा करने की कोई विशेष योजना नहीं है? इस संबंध में मौलवी फरीद मलिक, जो स्वयं शारीरिक रूप से दिव्यांग हैं, लेकिन मानसिक रूप से वे स्वस्थ लोगों से अधिक सामाजिक और राष्ट्र निर्माण के कई कार्यों में लगे रहते हैं। दिव्यांगों के अधिकारों के लिए वे समय-समय पर जिला मुख्यालय पुंछ, जम्मू, श्रीनगर और दिल्ली तक आवाज़ बुलंद करते रहते हैं। उनका कहना है, "दुर्भाग्य से दिव्यांगों को समाज में सम्मान प्राप्त नहीं होता है। ऐसे में महिलाओं और लड़कियों को घरेलू स्तर पर हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। अक्सर उन्हें शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है। उनके खिलाफ हो रही हिंसा को खत्म करने के लिए सख्त कानून बनाना जरूरी है। उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का सम्मान न करना, उनका मजाक उड़ाना, उनके साथ भेदभाव करना, समाज में उनकी स्वीकार्यता को कम करना, उन्हें शिक्षा के अवसर न देना, उनके स्वास्थ्य का ध्यान न रखना, चिकित्सा न करवाना, ये सभी चीजें उनके मानसिक विकास को प्रभावित कर रही है। विशेष रूप से दिव्यांगों को शैक्षिक रूप से अक्षम होने से बचाने की ज़रूरत है। उन्हें उनके अधिकारों को सुनिश्चित किये जाने की ज़रूरत है।
यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2022 के तहत पुंछ, जम्मू से रेहाना कौसर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है