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“काश, हमें भी स्कूल में सब्ज़ी तुड़वाने के बजाय शिक्षकों ने सही से पढ़ाया होता”

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शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जिससे आज के युग का हर व्यक्ति होकर गुजरा है। जब भी बोर्ड का रिजल्ट, फिर वो 10वीं हो या 12वीं हो, सबकी निगाहें मेरिट लिस्ट पर अटक जाती है कि कौन लिस्ट में आया, कितने प्रतिशत लेकर आया, वग़ैरह वग़ैरह। उसके उलट जब हम देखते हैं इस मेरिट लिस्ट में गिनती के कुछ 10 या 15 ही बच्चे होते हैं, क्या हमने कभी सोचा उन बच्चों का क्या जो पास तो हुए मगर एकदम पासिंग मार्क्स से ही पास हुए?

सिर्फ पासिंग नंबर लाने वालों का क्या दोष

एक फ़िल्म आई थी एक दशक पहले 'फ़ालतू'। हाँ भाई, वही मेरे डैडी हैं नाराज़ लेकिन पार्टी अभी बाक़ी है वाली फिल्म। फ़िल्म तो ठीक-ठाक चली, अपना बिज़नेस भी कर ली, डीजे में चलने के लिए दो चार गाने भी दे दिये। मगर जो सबसे ज़रूरी बात पर बहस होनी थी और उस बहस पर काम होना था, वो एक दशक में भी होता हुआ नहीं दिखा। उस फ़िल्म में बहस यह थी कि एकदम 34 प्रतिशत से पास होने वाले लोगों का क्या होगा।  

क्या मैरिट लिस्ट में शामिल न होने वाले छात्र आलसी हैं

मैं और मेरी टीम, हम शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं। कई सुदूर क्षेत्र के बच्चे हम से तब जुड़ते हैं, जब वो ग्रेजुएट हो चुके होते हैं। किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करना चाहते हैं और उनकी शिक्षा के साथ वर्षों पहले हुए भ्रष्टाचार का असर उनमें अब दिखता है। उनमें दिमाग़ की क़तई कमी नहीं है। उनमें मेहनत की क़तई कमी नहीं होती। जो बच्चे अपने घर के सारे काम करके, फिर ख़ाना बनाकर, बर्तन साफ़ कर के, साफ़-सफ़ाई कर, पिता के साथ बाज़ार में दर-दर घूम कर दुकान लगाकर व्यापार में सहयोग कर सकता हो, वह पढ़ाई के क्षेत्र में मेहनती नहीं है, यह कहना उचित नहीं है। सब कुछ करने के बाद भी वे पढ़ने की लगन रखते हैं तो उन्हें हम कतई आलसी तो नहीं कह सकते।

जब शिक्षकों को बस कमाई समझ आए

बच्चे बताते हैं कि जब वो शुरुआती कक्षाओं में थे जब कोई गुरुजी जो बहुत कम स्कूल आते, स्कूल में बैठते, थोड़ा इधर -उधर घूमते, फिर अपने घर के लिए स्कूल में लगे सब्ज़ी-भाजी तुड़वाते और बिना पढ़ाए या बहुत कम पढ़ाए चले जाते थे। हम बच्चे भी इससे खुश रहते थे। यह वास्तविकता है कि बच्चा अमूमन बचपन में पढ़ना नहीं चाहता है। सभी को बस खेलने को मिले और पास हो जाए, यही चाहिए होता था। वो गुरुजी अपने घूमने-घामने और कभी-कभी आने के इस भ्रष्ट आचरण के बदले में ये ज़रूर करते थे कि बच्चे बस पास हो जाएं। फिर वो किताब रख कर लिखें या वो जॉली एलएलबी के तरह माइक लगवाकर उत्तर बता कर करें। इसमें उनका ही लाभ होता था और वाह-वाही अलग मिलती थी कि वाह आपके स्कूल से तो 90 प्रतिशत रिजल्ट रहा है। ऊपर के अधिकारियों का भी काम हो जाता था।

अब आते हैं उस समस्या की ओर जिससे आज बीस वर्ष बाद भी वो बच्चे जूझते नज़र आते हैं। उनके हिन्दी की मात्राओं में बहुत ग़लतियाँ होती हैं। उन्हें जोड़ और घटाव में काफी परेशानियाँ होती हैं। उनके ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट होने के बाद भी उनके इंगलिश में बहुत ज़्यादा स्पेलिंग मिस्टेक होती है। इन सब समस्याओं से जूझते हुए वे बच्चे और ज़्यादा मेहनत करते हैं कि हमारे नंबर थोड़े और ज़्यादा आ जाये जिससे हम भी चयनित हो जाएं।

शिक्षा देने का काम सिर्फ़ पैसे कमाना नहीं

मेरा बस यही कहना है कि हमें अपने हिस्से की, अपने काम की ईमानदारी रखनी होगी। खास कर इस काम से जिससे कई लोगों के भविष्य पर असर पड़ रहा हो। यदि हम अपने काम को सिर्फ़ आय का साधन मान कर समय काटने लगे तो निश्चित ही अनजाने में ही सही आप किसी वंचित की हाय लेकर चलेंगे। बुजुर्ग कहते हैं न कि किसी की हाय लेना सबसे बड़ा अपराध है। आप विद्या दे रहे हैं मतलब आप सबसे  बेहतरीन काम कर रहे हैं। समाज के भविष्य को गढ़ रहे हैं और यही ईश्वर की पूजा, प्रार्थना और नमाज़ होनी चाहिए। 


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