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Channel: Campaign – Youth Ki Awaaz
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मेरी कहानी: झिझक से आत्मविश्वास तक

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बचपन एक ऐसी अवस्था है जिसे अपने अनुभवों के आधार पर कोई भी नही भूलना चाहता है | मेरे भी उन अनुभवों में कई ऐसे पल रहे है जिसे मै बार-बार याद कर उसे वापस से जीना चाहती हूँ |

मेरा जन्म मेरे ननिहाल में हुआ जो झारखंड के छोटे शहर झरिया में पड़ता है | हम दो जुड़वाँ बहने भी है | मेरे जन्म के कुछ सालों के बाद ही हम अपने ननिहाल से दादी घर के पास के शहर में आ गये, जो गाँव से बारह किलोमीटर है | हम यहाँ किरायें के घर में रहते थे | मुझे याद है हम हमेशा गाँव गर्मियों की छुट्टी या दशहरा में आया करते थे और इसे बहुत उत्साह से मनाते थे | मेरा छोटा सा गाँव गिद्धौर के पास बसा हुआ जिसे कहरडीह कहते है, जिसे अभी गूगल के नक़्शे में ढूंढना मुश्किल है |

मैं अपने घर से जब भी बाहर निकलती लोगों से मिलने में मुझे बहुत झिझक होती थी | मैं किसी से ज्यादा बातें नही करती थी | सिर्फ घर के सदस्यों जिसमे मेरे भाई-बहन, माँ-पापा और विद्यालय के मेरे दोस्त शामिल है | कोई भी मुझसे कुछ पूछता या कहता तो मेरा सर हमेशा जमीन को देख रहा होता था | मेरे लिए ये समझ पाना मुश्किल था, मुझे बोलना क्या है? या शायद एक डर था कि कहीं गलत न बोल दूँ, या मेरा ये मानना कि नही बोलना अच्छी बात है | मुझे याद है जब मैं कक्षा छ में थी तब मुझे एक शिक्षक पढ़ाने आते थे और मैं अपने पूरे एक घंटे की पढ़ाई सर नीचे करके पढ़ लिया करती थी | अभी जब मैंने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया तो अभी मैं इसे समझ पाती हूँ, मैंने अपने पढ़ाई के कितने बड़े हिस्से सवाल पूछना और चुनौतियाँ आ रही है तो इसे कैसे साझा किया जाए को अपने बचपन में किया ही नही है |

इसे अभी से जोड़ पाना बहुत मुश्किल है | मुझे बचपन से पढ़ने का शौक रहा है और मैं अपनी घर में सबसे छोटी बच्ची थी तो पढ़ाई को लेकर पूरा समय मिलता था | घर में माँ ने उस तरह से माहौल भी बनाये हुए थे कि हम भाई-बहन अपनी पढ़ाई, खेलना और अन्य काम समयानुसार किया करते थे | खेलने के समय भी हमे पुरे मिलते थे | उस समय मैं अपनी माँ से डरती भी थी | हालाँकि उन्होंने कभी मुझे मारा या ज्यादा डांटा नही था, लेकिन दो बार गलत करने पर दंड जरुर दिया था | दंड कुछ इस प्रकार था; कान पकड़ कर घर से बाहर गेट पर खड़े रहना और कविता नही सुनाने पर रात में सोने नही देना | इसकी वजह से मै अपने कक्षा में हमेशा अव्वल भी रहा करती थी या कह सकते है मेरा होशियार बच्चों में नाम लिया जाता था | मैं कभी भी बहुत ज्यादा अपने विद्यालय में अनुपस्तिथ नही हुई | बारिश के समय में जब घर में माँ-पापा जाने से मना करते थे तो अपनी पढ़ाई के लिए हम बहनें छाता का इस्तेमाल करके चले जाया करते थे | इसकी वजह से मुझे बारिश बहुत पसंद थी और इस मौसम में विद्यालय जाने में सबसे ज्यादा मज़ा आता था |

बचपन से मुझे ड्राइंग और क्राफ्ट करना पसंद था | इसकी शुरुआत ग्रीटिंग कार्ड्स बनाने से हुई थी | मै हर साल नये साल पर अपने दोस्तों और माँ-पापा के लिए ग्रीटिंग कार्ड बनाती थी और इसे करने समय मैं बहुत एन्ज्यो और हर बार इसे बनाने के नए तरीके ढूंढती थी | मेरे दोस्तों द्वारा दिए गये ग्रीटिंग कार्ड्स अभी भी मेरे पास संभाल के रखे है |

अपने पिताजी के साथ हम ज्यादा समय नही बिताते थे सिर्फ सुबह चार बजे उनके साथ टहलने जाने समय ही एक घंटे उनके साथ होते और आसपास क्या चीज़े चल रही है वो जानकारियाँ इक्कठा कर रहे होते थे | ये टहलने का स्थान जमुई में वाटर वेथ क नाम से एक स्थान है जहाँ एक सुंदर शिव मन्दिर था और पापा की उनमे बहुत आस्था है | यही से भगवान को प्रणाम कर हमारे दिन की शुरुआत हुआ करती थी | इसकी वजह से पापा के साथ मेरा डर का रिश्ता तो नही था लेकिन शायद किसी बात को साझा कर पाने का भी रिश्ता नही था | हमें कुछ माँगना या चाहिए होता तो हम अक्सर माँ को बताया करते थे | हमारे घर की इकॉनोमिक परिस्तिथियाँ हमेशा अच्छी नही रहती थी, कभी अच्छी और कभी ख़राब रही है क्यूंकि मेरे पापा नेटवर्क मार्केटिंग से जुड़े काम को करते थे और जिससे उन्हें कभी अच्छा फायदा और कभी नुकसान होता | जिसकी वजह से हमने कभी भी किसी चीज़ के लिए अपने अभिभावक से जिद नही की थी | पढाई से जुड़ी पूरी व्यवस्था हमें अच्छे से मिलती थी, ताकि हमारी पढ़ाई किसी तरीके से रुके नही और हम पढ़ पायें |

स्कूल से कॉलेज की यात्रा

इसकी वजह से जब मैं नवीं कक्षा में थी मेरा नामंकन गाँव के विद्यालय में हो गया और कुछ समय में हम सभी गाँव में ही रहने लगे |

गाँव आने के बाद मैंने सरकारी विद्यालय में पढ़ना शुरू किया लेकिन हर रोज़ हमारे विद्यालय में कक्षा नही चलती थी, तो हमे हर रोज़ विद्यालय नही जाना पड़ता था | उसी दौरान मेरे घर के आसपास के बच्चों के साथ मै जुड़ने लगी और धीरे-धीरे बच्चें के साथ जुड़ाव उनके पढ़ाई के साथ भी जुड़ गया और मैं खुद उनके साथ पढ़ाते हुए सीखने लगी | पहले 2, फिर 3 और इस तरह मेरे पास 20 बच्चें के आसपास आने लगे | 

बच्चें और खुद की पढ़ाई के साथ मैंने अपने दसवीं की परीक्षा 2016 में उत्तीर्ण की | पहले मुझे खुद में ये आत्मविश्वास नही था कि मैं ये कर पाउंगी लेकिन अच्छे नम्बर से उत्तीर्ण होकर मुझे खुद पर एक आत्मविश्वास आया कि मैं ये कर सकती हूँ | ऐसा मुझे इसलिए महसुस हो रहा था क्यूंकि इस समय में बच्चें, आसपास कोचिंग के माध्यम से पढ़ते थे लेकिन मै खुद से तैयारी कर रही थी, जिसमें मेरे भाई मेरी मदद कर रहे थे | 

इस आत्मविश्वास के साथ मैंने महिला कॉलेज में अपना दाखिला करवाया और उसी दौरान मेरे गाँव में एक संस्था, जिसका नाम आई-सक्षम है के बारे में पता चला | उस समय संस्था गाँव में युवाओं के साथ कंप्यूटर और जो युवा बच्चों के साथ जुड़े हुए थे उन्हें पढ़ाने के तरीके के लिए तीन महीने का एक सत्र करवाती थी | दसवीं करने के बाद मुझे भी लगा की कंप्यूटर सीखना चाहिए | मैंने सिर्फ लोगो को लैपटॉप का इस्तेमाल करते देखा था, जिससे मुझे भी लगता काश! मुझे भी ये चलाने आता |  इस चाह में मैंने भी अपना नाम सीखने की सूचि में डलवा दी | यहाँ से मेरे एक न्य सफर शुरू हुआ | मैं खुद पर विश्वास कर सत्र में चली तो जाती लेकिन ज्यादातर समय मैं सिर्फ सुनती, जब मुझे कुछ बोलना होता तो मैं बहुत मुश्किल से अपनी आवाज निकाल बोल पाती या ट्रेनर को मुझे बहुत ध्यान से सुनना पड़ता था | 

यही मैं ज्यादा लोगों से मिलने लगी जो मेरे साथ सीख रहे थे और जो हमें सीखा रहे थे | लोगों से मिलने और धीरे-धीरे अपनी बात बोलने के मौके से मै खुद के झिझक को दूर करने लगी थी | लेकिन तीन महीने ये मुझसे नही हो पाया और सत्र खत्म हो गया | मुझे लगा शायद अब ये मौके नही मिलेंगे | लेकिन फिर संस्था के द्वारा दो साल का फ़ेलोशिप लांच हुआ, जिसमे सप्ताह में एक सत्र होने लगा और मैं 2017 में ये फ़ेलोशिप जॉइन किया | बच्चों के साथ सीखना और फ़ेलोशिप के माध्यम से बताई गयी चीजों को सीख उन्हें बच्चों के साथ प्रयोग कर उन्हें भी सीखने में मदद करने लगी |  कहते है किसी भी चीज़ को करें हमे चुनौतियों का सामना करना ही पड़ता है | इसमें एक बड़ी चुनौती ये आई की ये सत्र जमुई जो मेरे गाँव से 12 किलोमीटर में है, वहां होने लगा | कुछ दिन तो मैं अपने पिता जी के साथ जा रही थी “लेकिन दो साल एक लम्बा समय था और अगले दो साल मुझे हर सप्ताह इसे लेकर जमुई जाना है” मेरे परिवार में ये बातें चलने लगी |  इतनी दूर होने की वजह से मेरे घर से मेरे पिताजी मुझे आने से मना करने लगे, क्युकी हर सप्ताह में एक दिन उन्हें या मेरे भाई को मुझे लाना और पहुँचाना होता था | मैं अपने घर में सबसे छोटी भी थी, जिसकी वजह से मुझे अकेले आने जाने से मना कर रहे थे |  इसकी वजह से मेरे शुरुआत में तीन-चार सत्र छुट गये | 

जब इसकी वजह से मेरे सत्र छूटने लगे तब मैंने पहली बात अपनी बात अपने परिवार के साथ साझा की कि मुझे ये करना है और मैं आगे सीखना चाहती हूँ | मैंने तीन महीने में भी इसमें काफी कुछ सीखा है | तब मैंने पहली बार अपने परिवार से ये सवाल खुद के लिए किया कि “क्या मैं अकेले जमुई जा सकती हूँ?” हालांकि हमारे घर में कभी भी मुझे पढ़ाई करने के लिए चुनौतियों का सामना नही करना पड़ा था लेकिन कहीं अकेले आना जाना, बाहर जाकर या रहकर पढ़ना एक बड़ी बात थी, इसको लेकर हमारे आसपास की लड़कियां सोच भी नही सकती थी | इसको लेकर सोचना अपने आप ये बात थी की “तुम एक लड़की हो” 

आई-सक्षम के साथ फैलोशिप

मै भाग्यशाली हूँ की मुझे ऐसा परिवार मिला है जो मुझे समझता है और मुझे क्या करना है को लेकर सहयोग करता है, कुछ दिन इस बात को लेकर माँ और पापा को मनाने के बाद मै पहली बार ऑटो रिक्शा से अकेले निकली और उस दिन, अभी भी याद है मुझे मै अंदर ही अंदर डर रही थी, पता नही कैसे होगा? अपने पापा और माँ से लगातार आई-सक्षम ऑफिस पहुंचने तक के बीच में बात करती रही | 

उस दिन मैंने ऑफिस पहुँच कर बहुत अलग महसूस हुआ, ऐसा लग रहा था मैं चाहू तो, जो भी करना चाहती हूँ वो कर सकती हूँ, खुद में एक विश्वास बंधा | इधर हमारे सत्र में मेरे जितने भी साथी थे उनमें से सबसे छोटी थी, लेकिन सत्र में जिस तरीके से हमारे ट्रेनर माहौल बनाते थे, मुझे कभी भी ऐसा महसूस नही हुआ, मेरी बातों को भी इतना ही महत्व दिया जाता, जितना बाकी साथियों को दिया जाता था | लोग मुझे भी सुनते और मेरी बात रखने का पूरा मौका देते | धीरे-धीरे अपनी बात रखने का झिझक मेरा खत्म हुआ और मैं लोगो के बीच अपनी बात साझा कर पाने लगी | 

इसी के साथ मुझे कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय जमुई और खैरा में पढ़ाते हुए सीखने का मौका मिला जहाँ कक्षा छह से आठवी तक की बच्चियां थी | बच्चियों के साथ भाषा और गणित के साथ क्राफ्ट एवं जेंडर का सेशन भी करते थे | मुझे अभी भी ध्यान है जब हम (मेरे साथ तीन और लोग थे जो कस्तूरबा में साथ में बच्चियों के साथ सीखने जाते थे) जेंडर का सेशन कर रहे थे और उसमें दहेज़ पर बातचीत कर रहे थे | बच्चियां अपने अनुभवों को हमारे साथ साझा कर पा रही थी और ऐसा लग रहा था अपने परिवार को देखते हुए उन्हें खुद में लग रहा एक आग हो जीवन में लड़की होने का जिसे मिटाना था | 

इस दौरान मैंने खुद में निम्न बदलाव देखे- 

  • अपनी बातों को आराम से किसी के साथ साझा कर पाना 
  • परिवार के सदस्य के साथ अपनी बात रखना, सुनना और राय दे पाना 
  • अकेले अपने गाँव से बाहर आना जाना कर पाना 
  • समुदाय में जिन बच्चों के साथ मैं जुड़ी थी, उनसे बातचीत कर बच्चों के प्रोग्रेस को साझा कर पाना 
  • सत्र के दौरान मैंने महत्वपूर्ण बातें सीखी; जैसे फीडबैक कैसे दे सकते है, बच्चों के साथ कक्षा में कैसे जुड़ सकते है जिससे वे अपनी पढ़ाई को उबाऊ नही मजेदार तरीके से कर पायें | 

सीखते हुए मैंने दो साल का फ़ेलोशिप के सफर को पूरा किया और आने वाले फ़ेलोशिप में लोगों से जुड़ने लगी | अन्य एडू-लीडर से मिलना, उन्हें सुनना और वो अपने जर्नी में कैसे बेहतर अनुभव ले सके उन्हें इसमें मदद कर पाना | इसके लिए अपने जिला के नए गाँव जाना, लोगों से मिलना और नयी चीजों को सीखने का ये सिलसिला अब भी जारी है | 


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