यह कहानी बिहार के बक्सर की है। बात उस वक्त की है जब भारत, कारगिल युद्ध जीत गया था। दूरदर्शन पर रामानंद सागर की सीरियल रामायण के साथ शक्तिमान और चंद्रकांता जैसे सीरियल्स की भी धूम थी। ना बिजली होती थी, ना इंटरनेट और ना ही मोबाइल। पबजी की जगह बच्चे लट्टू, गोली और गुल्ली-डंडा खेला करते थे।
बच्चों का टशन उनकी 24 इंची साईकिल के हैंडल में लगे झालर से था। लट्टू में लगा लोहे का गूंजा भी तेज़ धार वाला रखना पड़ता था। जेब में जितनी कंचे की गोली उतना ज़्यादा रसूख।
गाँव में कच्ची सड़क हुआ करती थी और चापाकल एक-दो लोगों के घर में ही था जो रसूखदार माने जाते थे। महतो जी का एक कुआं था जो गाँव के गरीबों का जीवन माना जाता था। रविवार के दिन गाँव के अधिक से अधिक लोग कपड़े का गठिया सिर पर रखकर और बच्चों को गोद में लिए गुलरी घाट पर जमा होते थे। वहां वे कपड़े धोने, सुखाने और नीम से दातुन करने के बाद पूरे गाँव की बातचीत करते थे।
गाँव के लोग गंगा की पवित्र धारा में स्नान करना नहीं भूलते थे मानो जैसे रविवार सबके लिए त्यौहार हो। गंगा की पवित्र धारा में सब कुछ समान अनुभव होता था। जाति और धर्म के सारे भेदभाव मिट जाते थे। गंगा की धारा सबके शरीर का मैल साफ कर देती है मगर मन का मैल क्यों नहीं साफ कर पाती है? उस पवित्र नदी में मुस्लिम समुदाय के लोग भी स्नान करना नहीं भूलते थे। उस वक्त भारत की संस्कृति की विविधता कोहरा बाबा घाट पर चमक उठती थी।
गाँव में अलग-अलग जाति के अलग-अलग मुहल्ले थे, जिन्हें भोजपुरी में टोला बोला जाता है। टोला का नाम और पहचान जाति से था। तकलीफ होती थी जब लोग जातिगत टोला का नाम लेकर किसी व्यक्ति की पहचान बताते थे क्योंकि इसमें जो शब्द आते थे, उससे आदरहीन महसूस होता था।
खैर, बात टोला की करें तो दलितों की बस्ती में कोई कुआं नहीं था। दलितों की बस्ती के निकट एक ज़मीनदार का कुआं था मगर उस कुएं का पानी दलितों के लिए अभिशाप था क्योंकि उस कुएं का पानी सिर्फ ज़मीनदार और उनके करीबियों के लिए था।
उस वक्त गर्मी की चिलचिलाती धूप और लू में कुएं की मिट्टी के घड़े में पानी और बर्गद के पेड़ ही एक मात्र आसरा थे। बात उस वक्त की है जब सभी घरवाले खेत में गए हुए थे और घर में केवल माँ और दादी जी थी। मैं स्कूल से पढ़कर और पेड़ से इमली तोड़कर खाते हुए घर आया।
मुझे ज़ोर से प्यास लगी थी मगर घर में जो पानी था वह गर्मी के कारण गर्म हो गया था। मैंने दादी जी से ठंडा पानी मांगा। दादी जी ने मुझे वही पानी पीने को बोला क्योंकि कुआं काफी दूर था और दादी जी धूप में थक जाती।
मैंने झुंझलाते हुए बोला कि पानी नहीं लाना है तो मत लाओ लेकिन झूठ मत बोलो क्योंकि कुआं तो एक दम पास में ही है। मैंने घर की सबसे छोटी बाल्टी उठाई और खुद ही चल पड़ा कुएं की ओर। दादी जी ने पूछा, “तुम इतनी दूर क्यों जा रहे हो बाबू?” मैंने कहा, “पास में ही तो है कुआं। वही से पानी ले आता हूं और आपको भी ठंडा पानी पिलाता हूं।” दादी जी बोल पड़ी, “अरे लल्ला, उस कुएं से पानी मत लाना।”
मेरे पूछने पर दादी जी बात को टालने लगी और बस उस कुएं से पानी लाने को मुझे मना कर दिया। मेरे ज़िद्द करने पर उन्होंने कहा, “वह कुआं ज़मींदारों का है।”
मैं कुछ समझा नहीं और मुझे इस बात ने झकझोर कर रख दिया। मैं इस बात के आगे अपनी प्यास भूल गया। मुझे यह जानने में काफी दिलचस्पी होने लगी कि दादी जी ने आखिर वह बात क्यों बोली।
दादी जी को समझ आ गया कि अब मैं ज़िद्द करूंगा और बहुत सवाल करूंगा। उन्होंने तुरंत मुझे पास बुलाया और मेरे माथे को चूम कर एक अनोखी तरकीब लगाई। उन्होंने कहा कि दादा जी छुट्टी से वापस आकर घर में ही चापाकल लगाएंगे। खैर, अब तो मैं समझ ही गया था कि दलित होने की वजह से हमें उस कुएं से पानी भरने नहीं दिया जाता है।
मेरे दादा जी पुलिस विभाग में जमादार के पद पर थे और कुछ दिन बाद दादा जी छुट्टी पर घर आए। फिर उन्होंने उनसे चापाकल लगवाया। इन सबके बीच बचपन का वह कुआं, गर्मी और लू मेरे मन से कभी ओझल नहीं हुआ और मैं दिन प्रतिदिन उस कुएं को समझने की कोशिश करने लगा।
The post “दलित होने के कारण गाँव के कुएं से हमें पानी भरने नहीं दिया जाता था” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.