

देश का इतिहास और परंपरा कई भारतीय ड्राइंग रूम में चर्चा के लोकप्रिय विषय होते हैं। लेकिन वास्तव में ग्रामीण भारत के लोग, विशेष रूप से खानाबदोश समुदाय, अनादि काल से परंपराओं को अपने जीवन और आजीविका में जीते रहे हैं। लेकिन दुख की बात है कि अक्सर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। उनकी कलात्मकता एक ऐसे युग में है जहां हस्तशिल्प के नाम पर पूरे देश में मेले, प्रदर्शनियां और तरह-तरह के बाजार लगते हैं। ऐसा प्लास्टिक मुक्त व्यवसाय, जो मुख्य रूप से खानाबदोश समुदाय की महिलाओं द्वारा चलाया जाता है।
सरधना गांव में बसी खानाबदोश समुदाय
यह लोग राजस्थान के प्रमुख पर्यटन स्थल अजमेर के बाहरी इलाके में आबाद सरधना गांव में स्थित खानाबदोश बस्ती में रहती हैं। यह पारंपरिक टोकरी निर्माताओं का समुदाय है। गांव के बाहर, कच्चे और अस्थाई घरों में आबाद ये परिवार खुद को जोगी मानता है। घर के बाहर ही महिलाएं जमीन पर बैठकर टोकरियां बुनती हैं, तो वहीं सामने सड़क किनारे मेजों पर उनकी बनाई टोकरियां बिक्री के लिए ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं। महिलाएं जहां टोकरियां बुनती और बेचती हैं, वहीं इस समुदाय के पुरुष आमतौर पर बांस को महीन पट्टियों में विभाजित करने का काम करते हैं जिनका उपयोग महिलाएं बुनाई में किया करती हैं।

पुश्तों से कर रहे हैं यह काम
सरधना की यह बस्ती पिछड़े समुदायों में सबसे पिछड़ी है। सात परिवारों वाले इस गांव में 20 साल की इंदिरा जोगी टोकरी बनाने का काम करती है। पिछले चार साल से ये टोकरियां बनाकर बेच रही हैं। उन्होंने कहा, "करीब 400 से 500 साल पहले हमारे पूर्वज इसी काम को करते आ रहे हैं।" हम सभी टोकरियां बनाकर सड़क किनारे बेचते हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में ज्यादातर दिन भर में एक टोकरी भी नहीं बिकती है क्योंकि स्थानीय दुकानदार इनसे टोकरियां खरीदने की जगह असम से मंगवाते हैं, जहां बांस की आसानी से उपलब्धता के कारण, प्रत्येक टोकरी का थोक मूल्य लगभग दस रूपए ही पड़ता है, जबकि सरधना अपनी एक टोकरी को तीस रुपए से कम में नहीं बेचते हैं।
इस बारे में इंदिरा की सास मुंगो जोगी ने कहा, "यदि हम छोटी टोकरी भी दस रुपये में बेच दें तो कच्चे माल का खर्चा भी नहीं निकल पाता है। परिवार मिलकर एक दिन में करीब 4 से 5 टोकरी बना लेता है। इसके अलावा इस्तेमाल होने वाली सामग्री और बांस के एक टुकड़े की कीमत करीब दो सौ रुपए अलग से आती है।" इंदिरा के पति मुकेश ने बताया कि कई बार उन्हें होटलों के अंदर झोपड़ी जैसी संरचनाएं बनाने के ऑर्डर भी मिलते हैं। इसके अलावा इस समुदाय के पुरुष बांस की क्राफ्टिंग के अलावा मजदूरी और अन्य काम भी करते हैं, लेकिन महिलाएं केवल टोकरियां ही बनाती हैं।
टोकरियों का हो रहा कम इस्तेमाल
लगभग 15 से 20 साल पहले तक, इस समुदाय द्वारा बनाई गई बड़ी टोकरियों का व्यापक रूप से पशुओं को चारा खिलाने के लिए उपयोग किया जाता था। अब सस्ते और अच्छी गुणवत्ता वाले प्लास्टिक के बर्तन व्यापक रूप से उपलब्ध होने के कारण, ग्रामीण और किसान भी अब इन महिलाओं से ये टोकरियां नहीं खरीदते हैं। इसलिए उनके पहले से ही कम लाभदायक व्यवसाय को जबरदस्त नुकसान हुआ है। इस संबंध में मंगू जोगी कहती हैं, "लेकिन हम और क्या कर सकते हैं? हमें कोई दूसरा काम भी नहीं देता है। हमारे पूर्वजों ने हमें केवल यही काम सिखाया है। हमें उसका अनुसरण करना है और उसके साथ रहना है। हम कभी स्कूल नहीं जा पाए, न ही हमारे पास करने के लिए कोई काम या खेती है।”
मुंगो के घर के ठीक बगल में उसके भतीजे शंकर की 30 वर्षीय पत्नी जमना रहती है जिसकी 12 वर्षीय बेटी एकुम करीब के एक सरकारी स्कूल में कक्षा 5 की छात्रा है। हालांकि एकुम ने अभी टोकरियां बनाना शुरू नहीं किया है, लेकिन जमना का मानना है कि वह भी यह काम सीख लेगी। फिलहाल एकुम और उनके छोटे भाई-बहन और चचेरे भाई कूड़ा बीनने का काम करते हैं और छोटी-छोटी रकम के लिए स्क्रैप बेचने के लिए आस-पास के इलाकों से बोतलें इकट्ठा करते हैं।
आर्थिक तंगी से जूझता यह समुदाय
सरधना समुदाय की बनाई टोकरियों की पहले काफी मांग थी। शहरों और गांवों से लोग रोटी रखने के लिए इनसे छोटी टोकरियां खरीदने आते थे। वहीं स्थानीय सब्जी विक्रेता भी अपनी दुकानों में उपयोग करने के लिए इनसे छोटे आकार की टोकरियां खरीदते थे। इस संबंध में जमुना जोगी कहती हैं, "पहले जब इनकी डिमांड होती थी तो हम महीने में कम से कम बीस से पच्चीस टोकरियां बनाकर आसानी से बेच देते थे। आज हमें 10 से 15 टोकरियों का भी खरीददार नहीं मिलता है। न ही हमें किसी तरह का सरकारी कर्ज प्राप्त होता है, जिससे कि हम कुछ और काम कर सकें।" वह बताती हैं कि साल का एक समय जो उनके लिए थोड़ा बेहतर होता है, वह नवरात्रि के दौरान होता है जब वे रावण की मूर्तियां बनाती हैं और उन्हें अजमेर शहर में बेचती हैं।

जमुना जोगी कहती हैं, "हम घर पर मूर्तियां बनाते हैं और हमारे आदमी उन्हें बेचने जाते हैं। हम दिन भर में अधिक से अधिक मूर्तियां बनाते हैं ताकि अगले दिन हमारे पास बिक्री के लिए और मूर्तियां तैयार रहें।" वह कहती हैं, ''शादी समारोहों के लिए इन टोकरियों की मांग आज भी है। हमारे द्वारा बनाई गई इन टोकरियों का उपयोग विवाह के अवसर पर दुल्हन के घर सजाने और सामान, कपड़े आदि भेजने के लिए किया जाता है।"
टोकरी बनाने दौरान आने वाली कठिनाइयों का ज़िक्र करते हुए जमुना कहती है कि टोकरी के फ्रेम के चारों ओर लपेटने से पहले, बांस के स्टैंड को पानी में डुबाते हैं फिर बुनाई शुरू करते हैं। फ्रेम के चौड़े किनारों को जोड़ने के लिए चाकू का उपयोग करते हैं और उन्हें पतली स्ट्रिप्स में काटते हैं। कई बार बांस की एक छड़ी जो सुई की तरह महीन होती है, हमारी उंगलियों में घुस जाती है। शुरू में बहुत दर्द होता था। लेकिन अब हम इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। आखिरकार यह हमारा काम है। हम इसे वैसे ही लेते हैं जैसे वह है। जमना और उसका परिवार कभी-कभी गांव में टोकरियां बेचने जाता है। लेकिन, पहले पशु मेलों के दौरान, वे नियमित रूप से जाते थे और मवेशियों के लिए उपयोग की जाने वाली टोकरियां, विशेषकर बैल टोकरियाँ, जो मेले में ही बुनी और बेची जाती थीं। अब मवेशियों को खिलाने के लिए प्लास्टिक की टोकरियों की मांग अधिक हो गई है, क्योंकि वे मजबूत और सस्ती होती हैं। लेकिन इसके बावजूद सरधना समुदाय की महिलाएं टोकरियां बनाती हैं। वह न केवल पारिवारिक शिल्प और कला की रक्षा करती हैं बल्कि देश को प्रदूषण से भी बचाती हैं। यह कहना उचित होगा कि प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त हस्तकलाओं की उपेक्षा की जा रही है।
यह आलेख राजस्थान से शेफाली मार्टिन्स ने संजय घोष मीडिया अवार्ड्स 2022 के तहत चरखा फीचर के लिए लिखा है