

(संपादक की तरफ से: ये कहानी स्पर्श चौधरी द्वारा लिखी गई है ,जैसे उन्हें कमला ने बताई )
मैं कमला हूँ। मैं एक आदिवासी परिवार से आती हूँ। इटारसी के पास स्थित धँसाई नाम के गाँव में अपनी चार बहनों, दो भाइयों और केसला के जंगलों में लकड़ी बीनकर बेचकर घर चलाने वाली मेरी माँ के साथ रहती हूँ। इन दिनों मैं सनावद(खरगोन ,मध्यप्रदेश ) के सबसे प्रतिष्ठित सीबीएसई स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर के तौर पर कार्यरत हूँ।
बचपन की बातें : ज़िन्दगी के मुश्किल सवाल
तमाम ज़िन्दगी दो वक़्त के भोजन और कपडे के इंतज़ाम में लगे परिवार के बीच मुझे मेरे बचपन के वो हिस्से बहुत खूब याद हैं जिनमें चुपके से भागकर कबड्डी खेलने में मुझे जन्नत मिलती थी। फिर भले ही लड़कों के साथ खेलने के लिए दीदी की डांट पड़ती रही हो।भैया ने भी आठवीं तक पढ़ने के बाद खेती शुरू कर दी थी और फिर आगे बारहवीं तक की पढाई प्राइवेट पास की।वो वैसे तो सिर्फ 46 प्रतिशत के साथ ही परीक्षा पास कर पाए थे। पर हमेशा कहते कि पढ़ो क्यूंकि पढ़ने से ही तो काबिल बनते हैं ! मुझे तो जैसे कुछ भी नहीं पता था ,कॉलेज क्या होता है के सवाल पर भैया ने ही बताया कि ऐ पी जे अब्दुल कलाम कैसे बनते अगर कॉलेज नहीं जाते !
खैर आठवीं कक्षा में आने के बाद दीदी की शादी हो गयी।और माँ जो सुबह चार बजे से पंद्रह किलोमीटर दूर इटारसी लकड़ी बेचने के लिए दिन भर मशक्कत करती थीं, मुझसे देखा नहीं जाता था तो मैं भी खेत और घर की ज़िम्मेदारी सँभालने लगी।
पढ़ने में मैं बहुत ही औसत थी। सारी ज़िन्दगी पढाई और इम्तेहानों से भागती रहने वाली लड़की। अगर भैया हर कदम पर मेरे साथ न होते तो मैं इतनी दूर पता नहीं कैसे चल पाती। पटेलों के खेत पर मज़दूरी करने जाती थी तो भैया डांटते थे। अंग्रेजी और गणित के कठिन इम्तेहानों को पास करने के नए तरीके हों या फिर उत्कृष्ट स्कूल में मेरा दाखिला , भैया ने हमेशा मेरे सपनों को पर दिए। जहाँ माँ ने कभी भी कुछ भी करने से रोका नहीं, तब से लेकर आज तक कभी भी यह सवाल नहीं किया कि तुम किसके साथ, कहाँ कब क्यों जा रही हो, वहीँ भैया मेरे गुरु और पिता दोनों थे।
तो मुझे पढ़ने से डर लगता था और सिवाय इसके कि पड़ोस के घर में मौजूद टीवी पर आने वाली फिल्म ‘तेजस्विनी जोशी’ और जीजाजी जो आर्मी मे थे ,उनसे मिली प्रेरणा ने कुछ कुछ मेरे भीतर यह बीज डाला कि पढाई कर लूँ तो पुलिस में जा सकती हूँ। तब भैया ने ही उत्कृष्ट स्कूल के दाखिले के लिए तैयारी करवाई। बिना कोचिंग के मैंने यह कठिन माने जाने वाली परीक्षा सिर्फ भैया के साथ के कारण उत्तीर्ण की और दसवीं में 54 प्रतिशत भी ला सकी। पत्थर तोड़ने और गाय चराने के बीच के वक़्त में जंगल में बैठ कर की गयी मेरी मेहनत सफल हुई और सबने यह सराहा। कहा कि बिना किसी संसाधन के, बिना किसी वक़्त के यह लड़की तो कमाल कर गयी तो ज़िन्दगी में पहली बार आत्मविश्वास वाली ख़ुशी महसूस हुई।
‘पहले मौके को हाँ कहा, फिर चुनौती के लिए खुद को तैयार किया’
उत्कृष्ट विद्यालय मेरे ज़िन्दगी का एक जैसे नया पड़ाव था। यहां मैंने नए अवसर, सपने, साथ, बेहद नेकदिल गुरुजन और नए रास्ते पाए। आदिम जाति कल्याण विभाग के ओपन टूर्नामेंट का जब मौका मिला तो मैंने हाँ तो कह दिया। इस टूर्नामेंट के जरिए विभिन्न खेलों के राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय स्तर के लिए चयन किया जाना था । पर मुझे पता ही नहीं था कि ये टूर्नामेंट क्या, कैसे होता है, यहाँ तक कि किस खेल में नाम लिखवाऊं यह भी नहीं। क्योंकि कबड्डी इस में था नही तो मैंने 800 मीटर की रेस भर दिया। मेरी एक मज़ेदार आदत है कि मैं पहले हाँ कर देती हूँ और फिर सोचती हूँ कि कैसे करेंगे। तो योग में राज्य स्तर तक पहुंचने की कहानी भी इस टूर्नामेंट के साथ साथ चल रही थी। मैं योग किताबों से सीखती थी, खुद से बिना कोच के, इंटरनेट वाला फ़ोन तो मास्टर्स के दौरान आया है मेरे पास।
खैर मैं सालों से खेलना छोड़ चुकी थी फिर भी यहां मानो अंदर की इच्छा के पंख थे। तो यहाँ टूर्नामेंट में मैं प्रथम आयी और मुझे राज्य स्तरीय खेलने का मौका मिला ! परंतु वहां मेरा स्थान द्वितीय और राष्ट्रीय चयन सूची के लिए प्रतीक्षा में चला गया। पर भैया ने कहा कि अब जब राज्य स्तरीय आ गए हैं तो मेहनत करेंगे। मेरे भाई ने मुझे खुद शॉर्ट्स लाकर दिए और कहा कि सूट में थोड़ी न दौड़ोगी। और दौड़वाने का अभ्यास शुरू किया। मेरे छोटे भाई से छुपाकर बादाम और दूध मुझे दिए,जो हमारे घर में एक सपना थे। मैं नंगे पाँव धूप में रहने की आदी थी तो वैसे ही दौड़ने का अभ्यास हम सुबह पांच बजे उठके करते थे। हम बिना किसी निश्चितता के बस लगे हुए थे.जैसे भगवान् भी मानो देख रहा था। पता चला मेरी प्रतीक्षा अब अवसर में बदल गयी है, नेशनल्स के लिए।

नया पड़ाव
मेरे लिए पुणे में वह कैंप एक नया अनुभव था। पहली बार कहीं बाहर जाना हो या बहुत पौष्टिक व स्वादिष्ट भोजन हो। खैर वहां के लिए भी न कोई नियम का अनुभव, न जूते और न ही कोई तकनीकी ज्ञान खेल का, कुछ नहीं था । फिर भी वहां मिले नए दोस्तों के साथ और नए अनुभव के साथ मैं राष्ट्रीय स्तर पर चतुर्थ स्थान पर रही और वापस लौटी तो मानो प्यार ,सम्मान और सराहना की एक अलग दुनिया मेरा इंतज़ार कर रही थी। मुझे कहा गया कि मुझे खेल में अपना करियर बनाना चाहिए। ‘भारत कॉलिंग’ के समर कैंप में जाना मेरे लिए मानो एक इशारा था। पर इस बार माँ को नाराज़ करना पड़ा जब महुआ बीनने में मदद करने और भविष्य के रास्ते को चुनने में से मैंने कैंप को चुना। यहाँ मुझे पता चला कि मैं इस क्षेत्र में करियर बना सकती हूँ और इस के लिए कौन कौन से कॉलेज हैं।
पर अभी तो सफर शुरू हुआ था। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर में फिजिकल एजुकेशन के स्नातक कोर्स के लिए आवेदन करने के बाद परीक्षा कक्ष में पहुँचने के बाद पता चला कि मेरा तो आवदेन पहुंचा ही नहीं। पर फिर भी मुझे परीक्षा देने दिया गया ! ट्रायल्स के दौरान रेलवे स्टेशन पर रहकर बिताई गई रात हो या फिर गोल्ड के साधारण जूते इन के साथ बढ़ते हुए एक दिन सहेली का फोन आया कि मेरा नाम इंदौर के इस सबसे बड़े कॉलेज की मेरिट सूची में प्रथम स्थान पर है हालांकि फीस के पैसों का इंतजाम तो स्कॉलरशिप से हो गया था पर खाने पीने और अन्य खर्चों के लिए भैया भी इंतजाम नहीं कर सके। महीने के 2000 रुपए हम तीन सालों तक नहीं जुगाड सकते थे तो मैंने एक महीने बाद मजबूरन कॉलेज छोड़ दिया ,वही कॉलेज जो मेरा सपना था ।
आने के बाद जैसे मेरे भीतर कुछ खाली सा था। मैने कभी शिकायत नहीं कि अगर हमारे पास पैसे होते तो मुझे यूं सीट छोड़नी नही पड़ती। पर इस दौर में मेरा कहीं मन नहीं लगता था । पुराने स्कूल के लोगों की मदद से मैं जब तक वापस पहुंची, वह सीट प्रतीक्षारत छात्र को दी जा चुकी थी । इस बीच वन विभाग में पौधारोपण में मजदूरी भी की और भारत कॉलिंग के भैया लोग हर कभी हमारे घर आते थे ,पैसे और मनोबल के साथ । पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
अगले साल मैंने यह प्रवेश परीक्षा फिर से उत्तीर्ण की । पर इस बार मेरे दोस्त जो अब सीनियर हो चुके थे,मुझे डीन के पास ले गए और उन्होंने मुझे एक अन्य छात्रा के सुपुर्द करते हुए कहा कि कमला का ध्यान तुम रखोगी। हमने कॉलेज के बाहर एक डॉरमेटरी में रहना तय किया जहां खाना मैं खुद बना लिया करती थी तो खर्चा बच गया था। इसके अलावा गर्मियों में लिए गए योग के डिप्लोमा कोर्स के कारण मैं एक प्रसिद्ध महिला की व्यक्तिगत ट्रेनर बनकर अपना खर्चा निकालने लगी । शुरू शुरू में कठिन अंग्रेजी के लेक्चर सिर के ऊपर से जाया करते थे तो मैं कॉलेज के बाद अंग्रेजी सीखने की क्लासेज भी जाया करती थी। मैं सीख भी रही थी और सिखा भी रही थी।
जब सबने कहा कि अब तो तुम्हे मास्टर्स करना चाहिए तो मैं फिर परेशान कि अभी और भी पढाई करना पड़ेगा ! जॉब के लिए इतना पढ़ना पड़ता है क्या? फिर मैंने नवोदय विद्यालय के टी जी टी पद के लिए अप्लाई किया मगर यहाँ मेरी प्रतीक्षा सूची परिणत नहीं हो पायी। फिर मेरे कॉलेज डीन के रेफ़्रेन्स और उनके मेरी काबिलियत पर भरोसे पर मुझे सनावद के विमला पब्लिक स्कूल में फिजिकल एजुकेशन टीचर का जॉब मिला। हालांकि अब मैं मेरे दोस्तों के सहयोग और प्रेरणा से प्रोफ़ेसर बनने की और अग्रसर हूँ। राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा (नेट ) के हालिया नतीजों में मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं सफल होने जा रही हूँ।
तो मुझे, जिसे बचपन से पास होना मुश्किल था, जब खुद के पसंद का रास्ता और उसपर चलने में प्रेरणा और साथ देने वाले लोग मिले तो मैंने पीछे मुड़के नहीं देखा। इन अलग अलग जगहों ने मुझे आम लड़की की तरह सजना संवरना हो, कॉलेज की छोटी बड़ी कहानियां हो, कॉलेज के चुनाव में जीत हासिल करना हो, मुश्किल वक़्त में साथ हो - सबने बहुत कुछ सिखाया और बहुत अच्छा महसूस कराया। हाल ही में मैंने अपने भैया के बिज़नेस के लिए हाईवे पर एक छोटा सा प्लॉट खरीदा है। माँ तो आज भी मुझसे कोई तोहफा नहीं लेती खैर। और आज भी लकड़ी बीनने जाती हैं।
तो ये है मेरी कहानी। मैं शुक्रगुज़ार हूँ और मानती हूँ कि मुश्किल बचपन के बावजूद मुझे बहुत प्यार मिला है। मेरे हुनर को तराशने में इसी की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। आज खेल की शिक्षा ने मेरा जीवन संतुष्टि और आत्मनिर्भरता से भर दिया है।